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________________ दौलतराम-क्त क्रियाकोष अपने अर तियके व्रत्ता, सबहीं पाले निरवृत्ता। या विधि जिन नारी सेवे, पर मनमें ऐसें बेवै ॥७९ कब तजि हो काम-विकारा, इह कर्म महा दुख-भारा। यामें हिंसा बह होवे, या कर्म करें शुभ खोवे ।।८० जैसे नाली तिल भरिये, रंचह खाली नहिं धरिये। तातो कोलो ता माहै, लोहे को संसे नाहै ॥८१ घालें तिल भस्म जु होई, यह परतछि देखो कोई। तैसे ही लिंग करि जीवा, नासें भग माहिं अतीवा ।।८२ तातें यह मैथुन निद्या, याको त्यागें जगवंद्या। धन धन्य भाग जाको है, जो मैथुनतें जु बच्यो है ।।८३ जो बाल ब्रह्मव्रत धारें, आजनम न मैथुन कारें। तिनके चरणनि की भक्को, दे भव्य जीवकू मुक्ती ॥४ हमहू ऐसे कब होहे, तजि नारी व्रत करि सोहें। या मैथुन में न भलाई, परतछ दीखै अघ भाई ॥८५ अपनीहू नारी त्यागे, जब जिनवर के मत लागे । यह देहह अपनी नाही, चेतन बैठो जा माहीं ॥८६ तो नारी कैसे अपनी, यह गुरु आज्ञा उर खपनी । या विधि चितवे मन माहीं, कब घर तजि वनकू जाहीं ॥८७ जबलों बलवान बु मोहा, तबलों इह मनमथ द्रोहा। छोड़े नहिं हमसों पापी, तातें ब्याही त्रिय थापी ॥८८ जबलों बलवान ज होहै, मारै मनमथ बर मोहै। असमर्था नारी राखे, समरथ आतम-रस चाखें ॥८९ यह भावन नित भावंतो, घर माहिं उदास रहती। जैसें पर-घर पाहुणियो, तैसें ये श्रावक गिणियो ॥९० वह तो घर पहुंची चाहै, यह शिवपुर कों जो उमाहै। अति भाव उदासी जाको, निज चेतन में चित ताको ॥९१ छांड़े सब राग रु दोषा, धार सामायिक पोषा। कबहू न रक्त घरमें, है नगन त्रियासों न रमें ॥९२ मुख आदि विकारा जे हैं, छांड़े नर ज्ञानी ते हैं। इह त्रिय सेवन विधि भाखी, विन पाणिग्रह नहिं राखी ॥१३ श्रावक व्रतधरि सुरपति है, सुरपति तें चय नरपति हे। पुनि मुनि है पावै मुक्ती, इह शील प्रभाव सु जुक्ती ॥९४ नहिं शील सारिखो कोई, दे सुरपुर शिवपुर होई । जे बाल ब्रह्मचारी हैं. सम्यग्दर्शन धारी हैं ॥९५ तिनके सम है नहिं दूजा, पावै त्रिभुवन करि पूजा। जे जीव कुशीले पापा, पार्वे भव-भव संतापा ॥९६ ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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