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श्रावकाचार-संग्रह
जग में जड़ अनुरागे, लागे नाहीं निज में ।
कर्म कर्मफल रूप होय के, परे भंवर भ्रम रज में ॥६२ ज्ञान चेतना लखी न अबलों, तत्त्वस्वरूपा शुद्धा । जामें कर्म न भर्मकलपना, भाव न एक अशुद्धा ||६३ मिथ्या परणति त्यागै कोई, सम्यक दृष्टी होई । अनुभव रस में भीगे जोई, शीलवन्त है सोई ॥६४ निश्चय शील बखान्यूं एई, अचल अखण्ड प्रभावा । परमं समाधि मई निजभावा, जहां न एक विभावा ॥ ६५
छन्द चाल
अब सुनि व्यवहार सुशीला, धारन में करहु न ढीला । दृढ़ व्रत आखड़ी धरिवौ, नारिको संग न करिवौ ॥६६ नारी है नरक प्रतोली, नारिन में कुमति अतोली । ए महा मोह की टोली, सेवें जिनकी मति भोली ॥६७ नारी जग-जन-मन चोरै, नारी भवजल में बोरै ।. भव भव दुखदायक जानों, नारी सों प्रीति न ठानों ॥६८ त्यागें नारी को संगा, नहि करें शीलव्रत भंगा । ते पावें मुक्ति निवासा, कवहु न करें भव-वासा ॥६९ इह मदन महा दुखदाई, याकूं जीतें मुनिराई । मुनिराय महा बलवन्ता, मनजीत मानजित सन्ता ॥७० शीलहि सुरपति सिर नावे, शीलहि शिवपुर जति जावै । साधू हैं शील सरूपा, यह शील सुव्रत्त अनूपा ॥७१ मुनि के कछु न विकारा, मन वच तन सर्व प्रकारा । चितवौ व्रत चेतन माहीं, नारी को सपरस नाहीं ॥७२ गृहपति के कछुक विकारा, तातें ए अणुव्रत धारा । परदारा कबहुं न सेवें, परधन, कबहुँ नहि लेवें ॥७३
ती जग में परनारी, बेटी बहनी महतारी । इह भांति गिनै जो भाई, सो श्रावक शुद्ध कहाई ॥७४ निजदारा पर सन्तोषा नहि, काम राग अति पोषा । विरकत भावे कोउ समये, सेवें निज नारी कम ये ॥७५ दिनको न करे ए कामा, रात्री कबहुक परिणामा । मैथुन के समये मवना, नहि राव करै रति रमना ॥७६ परवी - सब हो प्रति पाले, व्रत शील धारि अघ टाले । अष्टान्हिक तीनों घारे, भादव के मास हु सारै ॥७७ ये दिवस धर्म के मूला, इनमें मैथुन अघ थूला । अबर हुजे व्रत के दिवसा, पालै इन्द्रिनि के न वसा ॥७८
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