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दौलतराम-कृत क्रियाकोष कनक कामिनी रागते, लखी जाय नहिं सोइ । संयम शील स्वभावतें, ताको दरसन होइ ॥४७ सील ओपमा बहुत है, कहै कहांलो कोय । जानें श्री जिनराज जु, शीलशिरोमणि सोय ॥४८ दौलति और न ऋद्धि सी, ऋद्धि न बुद्धि समान । बुद्धि न केवल सिद्धि सी, इह निश्चय परवान ।।४९
इति शील-उपमा वर्णन
अथ शील स्वरूप निरूपण कह्यो दोय विध शीलव्रत, निश्चय अर व्यवहार । सो धारो उर में सुधी, त्यागौ सकल विकार ॥५० निश्चय परम समाधितें, खिसवौं नाहिं कदाचि । लखिवौ आतमभाव को, रहियो निज में राचि ॥५१ निज परिणति परगट जहां, पर परिणति परिहार । निश्चय शील-निधान जो, वर्जित सकल विकार ॥५२ पर परिणति जे परिणमें, ते व्यभिचारी जानि । मानि ब्रह्मचारी तिके, लेहि ब्रह्म पहिचान ॥५३ परम शुद्ध परिणति विषै, मगन रहै धरि ध्यान । पावें निश्चय शील को, भावें आतमज्ञान ॥५४ निज परिणति निज चेतना, ज्ञान सरूपा होइ। दरसन रूपा परम जो, चारितरूपा सोइ ॥५५ जड़रूपा जगबुद्धि जो, आपापर न लखेह । पर परिणति सो जानिए, तन-धन मांहि फसेह ॥५६ पर परिणति के मूल ए, राग दोष मद मोह । काम क्रोध छल लाभ खल, परनिंदा परद्रोह ॥५७ दंभ प्रपंच मिथ्यात मल, पाखंडादि अनंत । इन करि जीव अनादि के, भव-भव में भटकंत ॥५८ जो लग मिथ्या परिणती, सठजन के परकास। तो लग सम्यक् परिणती, होय न ब्रह्म-विकास ॥५९
जोगीरासा
तजि व्यभिचारी भाव, सबै ही भए ब्रह्मचारी जे । ते शिवपुर में जाय विरजे, भव्यनि भव तारीजे ॥६० व्यभिचारी जे पापाचारी, ते भरमें भव-भवमें। पर परिणति सों रचिया जोलों, तोलों जाय न शिव में ॥६१
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