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श्रावकाचार-संग्रह उज्जल जल गल्यो उचित, सोध्यौ अन्न अडंक । ता सम भक्ष्य न लोक में, भावें विबुध निशंक ॥२९ मद्य मांस मधु मांखणा, ऊमरादि फल निदि । इनसे अभख न लोक में, निदें नर जगवंदि ॥३० वेश्या दासी परत्रिया, तितसी धारै प्रीति । . एहि अगम्या गम्य है, या सम नाहि अनीति ॥३१ होय कलंक को सारखे, नाहि अनीतो कोय । वज्र चक्री सारिखे, नीतिवान नहिं जोय ॥३२ खग जग कोउ गजेन्द्र से, मग मृगेन्द्र से नाहिं । खग नहिं कोउ खगेन्द्र से, जे अति जोर धराहि ॥३३ वादित्र न कोइ बोन से, सुरपति से न प्रवीन । बाण न कोइ अमोघ से, हिंसक से न मलीन ॥३४ अशन न पान पियूष से, व्यसन न द्यूत समान । वस्त्राभरण न लोक में, देवलोक सम आन ॥३५ वाजित्री न महेन्द्र से, पंच कल्याणक माहि । सदा बजावें राग धरि, गावैं संशय नाहिं ॥३६ अश्व नहीं जात्यश्व से, कटक न चक्रि-समान । अलंकार नहिं मुकट से, अंग न सीस समान ॥३७ पाले बाल जु ब्रह्मब्रत, ता सम पुरुष न नारि । खोवै वृद्धहिं ब्रह्मव्रत, ता सम पशु न विचारि ॥३८ वज्र चक्र से लोक में, आयुध और न वीर । वज्रायुध चक्रायुधी, तिनसे प्रबल न धीर ॥३९ हल मुसलायुध सारिखे, भद्रभाव नहि भूप। नहिं धनुषायुध सारिखे, केलि कूतहल रूप.॥४० नाहिं त्रिशूलायुध जिसै, ओर न भयंकर कोइ। नहिं पुष्पायुध सारिखे, महा मनोहर होइ ॥४१ धर्मायुध से धर्मधर, सर्वोत्तम सब नाथ । और न जानो लोक में, सकल जिनों के साथ ॥४२ नहिं व्यभिचारी सारिखा, पापाचारी और । नाहिं ब्रह्मचारी समा, आचारी सिरमौर ॥४३ मायासी कुलटा नहीं, लगी जगत के संग। विरचे क्षण में पापिनी, परकीया बहु रंग ॥४४ नहिं चिद्रूपा सिद्धि सी, सुकिया जगत मझार । नहिं नायक चिद्रूप सो, आनन्दो अविकार ॥४५ न्यारी होय न चेतना, है चेतन को रूप । रामरूप सी नहिं रमा, रामस्वरूप अनूप ॥४६
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