________________
२९३
दौलतराम-कृत क्रियाकोष पोसह पडिक्रमणादि सो, शुभाचरण नहि होइ । विषय कषाय कलंक सो, अशुभाचरण न कोइ ।।११ आतम अनुभव सारिखा, शुद्धभाव नहीं वीर। नहीं अनुभवी सारिखे, तीन भवन में धीर ।।१२ नारि समान न नागिनी, नारी सम न पिशाच । नारि समान न व्याधि है, रहें मूढजन राचि ॥१३ ब्रह्मज्ञान को विश्व में, वैरी है व्यभिचार । ब्रह्मचर्य सो मित्र नहिं, इह निश्चै उर धारि ।।१४ कायर कृपण समान नहि, सुभट न त्यागी तुल्य । रंक न आसादास से, लहै न भाव अतुल्य ।।१५ संत न आशा रहित से, आशा त्यागें साध । साध समान अबाध नहिं, करहि तत्त्व आराध ॥१६ निजगण से नहिं भूषणा, भूख न चाहि समान । वस्त्र न दश दिश सारिखे, इह भाषे भगवान ॥१७ भोजन तृपति समान नहि, भाजन गगन जिसी न । राज न शिवपुर राज सो, जामें काल धको न ॥१८ राव न सिद्ध अनन्त से, साथ न भाव समान । भाव न ज्ञानानन्द से, इह निश्चय परवान ॥१९ चेतनता सत्ता महा, ता सम पटरानी न । शक्ति अनन्तानन्त सी, राजलोक जानी न ॥२० नारक से दुखिया नहीं, विषयी देव जिसै न । चिन्तावान मनुष्य से, असहाई पशु से न ॥२१ सूक्षम अलप प्रजापता, जीव निगोद निवास । ता सम सूक्षम थावर न, इह जिन आज्ञा भास ॥२२ अलस्या से बेइन्द्रिया, और न अलप शरीर । नहीं कुंथिया से अलप, ते इन्द्रिय तनवीर ॥२३ काणमच्छिकासे न तुच्छ, चौइन्द्रिय तन धार । तन्दुलमच्छ समान तुच्छ, पंचेन्द्री न विचार ॥२४ चुगली-चोरी अति बुरी, जोरी जारी ताप । चोरी चमचोरी तथा, जुवा आमिष पाप ॥२५ मदिरा मृगया मांगना, पर महिलासू प्रीति । परद्रोह परपंच अर, पाखंडादि प्रतीत ॥२६ तजो अभक्षण भक्ष्य अरु, तजौ अगम्यागम्य । तजो विपर्यय भाव सहु, त्यागहु पाप अरम्य ॥२७ इनसी और न कुक्रिया, नरक निगोद प्रदाय । सकल कुक्रिया त्याग-सों और न ज्ञान उपाय ।।२८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org