________________
२१३
श्रावकाचार-संग्रहै
हीन दीन अति तुच्छ तन, नहिं निगोदिया तुल्य । सरवारथ सिधि देव से, भववासी नहिं कुल्य ॥९३ दीरघ देह न मच्छ से, सहसर जोजन देह । चौइन्द्री नहिं भ्रमर से, जोजन एक गनेह ॥९४ कान खजुरया से नहीं, ते इन्द्री त्रय कोस । बेइन्द्री नहिं संख से, तन अढ़तालीस कोश ॥९५ एकेन्द्री नहिं कमल से, सहसर जोजन एक । सब परि करुणा राखिवी, इह जिनधर्म विवेक ॥९६ धातु न कनक समान सो, काई लगै न जाहि । सोहु न चेतन धातु सों, नहिं कबहुं विनसाहि ॥९७ पारस से पाषाण नहि, लोहा कनक कराय । पारसनाथ समान कोउ, पारस नाहिं कहाय ॥९८ करै जीव कों आप सम, हरै सबै दुःख दोय। धरै मोक्ष थानक विर्षे, करै कर्म गण सोय ।।९९ ध्यावौ पारसप्रभु महा, बसै सदा सो पास । राशि सकल गुणरतन की, काट कर्म जु पासि ।।१०० चातुर्मासिक सारखे, उत्तपत जीव न आन । व्रती जति से नाहिं कोउ, गमन तजें गुणवान ॥१ जिन कल्याणक क्षेत्र से और न तीरथ जान । तेहु न निज तीरथ जिसै, इह निश्चय कर मान ।।२ निज तीरथ निज क्षेत्र है, असंख्यात परदेश । तहां विराजै आतमा, जानै भाव असेस ॥३ अष्टमि चउदसि सारिखी, परवी और न जानि । आष्टाह्निक से लोक में, पर्व न कोइ प्रवानि ॥४ नंदीसुर सो धाम नहिं, जहां हरख अति होय । नंदादिक वापनि सी, नहीं वापिका कोय ॥५ नारक से क्रोधी नहीं, शठ नर सो न गुमान । विकल न पशुगण सारिखे, लोभ न दंभ न समान ॥६ नारक से न कुरूप कोउ, देवनि से न सुरूप । नर से धन्धाधर नहीं, नहिं पशु से वहुरूप ॥७ कारण भोग न दान सो, तप सो स्वर्ग न मूल । हिंसारम्भ समान नहिं, कारण नरक सथूल ॥८ पशुगति कारण कपट सो, ओर न कोइ बखान । सरल निगर्व सुभाष सो, नरभव मूल न आन ॥९ सुख कारण नहिं शुभ समो, अशुभ समा दुख मूल । नहीं शुद्ध सो लोक में, मोक्ष-मूल अनुकूल ॥१०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.