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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
नाहि गणीन्द्र जिनेन्द्र से, जे सबके गुरुदेव । इन्द्र फणिन्द्र नरेन्द्र मुनि, करें सुरासुर सेव ॥७५ ते जिनेन्द्र हू तप समय, करें सिद्ध को ध्यान । सिद्धनि सो संसार में, नाहिं दूसरो आन ॥७६ सिद्धनि सो यह आत्मा, निश्चय नय करि होय । सिद्धलोक दायक महा, नहीं शौल सो कोय ॥७७ भूमि न अष्टम भूमि सी, सर्वभूमि के शीश । • कर्म भूमि तें पावही अष्टम भूमि मुनीस ॥ ७८ द्वीप अढ़ाई से नहीं, असंख्यात ही द्वीप । जहां ऊपजे जिनवरा, तीन भुवन के दीप ॥७९ नहि जिन प्रतिमा सारिखी, कारण वर वैराग । नहीं आन मूरति जिसी, कारण दोष रु राग ॥८० नहि अनादि प्रतिमासमा, सुंदर रूप अपार । नाहि अकृत्रिम सारखे, चैत्यालय विसतार ॥८१ क्षेत्र न आरिज सारिखे, सिद्धक्षेत्र है सोइ । भरतैरावत दस सबै, नहि विदेह से कोइ ॥ ८२ गिरि नहिं सुरगिरि सारिखे, तर सुरतरु से नाहिं । नदी सुरनदी सी नहीं, सर्व नदी के माहि ॥ ८३ शिला न पांडुकशिला सम, जा परि न्हावे ईश । सिद्ध सिलासी पांडु नहिं, सा त्रिभुवन के शीश ॥८४ उदधि न क्षीरोदधि समा द्रह पदमादि जिसे न । मणि नहि चिंतामणि समा, कामधेनु सी धेनु ॥ ८५ निधि नहि नवनिधि सारिखी, सो निजनिधि सी नाहिं ।
समुद्र गुणसिंधु सो, है निज निधि जा माहिं ॥८६ नन्दनादि से बन नहीं, ते निज बन से नाहि । . निज बन में क्रोडा करें, ते आनन्द लहाहिं ॥८७ केवल परिणति सारिखी, नदी कलोलनि कोइ । निज गंगा सोई गनों, ता सम और न होइ ||८८ देव न आतम देव सो, गुण आतम सो, नाहि । धर्म न आतम धर्म सो. गुण अनन्त जामाहिं ॥८९ बाजा दुन्दुभि सारिखा, नहीं जगत में और । राजा जिनवर सो नहीं, तीन भुवन सिरमौर ॥९० नाह अनाहत तूर से देव दुन्दभी तूर ।
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सूरन तिनसे जे नरा, डारे मनमथ चूर ॥९१ वाहन नहीं विमान से, फिरें गगन के माहि । नाहि विमान जु ज्ञान से, जा करि शिवपुर जाहि ॥९२
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