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श्रावकाचार-संग्रह तप कल्याणक समये सेवा, करें जिनेसुर की ये । नर ह पावें पद निरबाना, राखे जिनमत हीये ॥ इंद्राणी सी देवी नाहीं, इन्द्राणी न शचीसी। इक भव धरि पावै सुखबासा, तीर्थंकर जननीसी ॥६० सेवक देव जिनेसुरजू के, नाहिं सुरेसुर तुल्या। शची सारिखी भक्त न कोई, घारे भाव अतुल्या ॥ कल्याणक ए पांचू पूर्ज, शची शक्र जिनदासा । अहनिशि जिनवर चरचा इनके, धारे अतुल विलासा ॥६१
दोहा अब सुनि अहमिंद्रा महा, स्वर्ग ऊपरै जेहि। नव ग्रीवक नव अनुदिसा, पंचानुत्तर लेहि ॥६२ तेईसौं शुभ थान ए, तिनमें चौदा सार । नव अनुदिश पंचोत्तरा, ये पावें भवपार ॥६३ सम्यकदृष्टी देव ए, चौदहथान निवास । चौदह में नहिं पंच से, महा सुखनि की रास ॥६४ पंचनि में सरवारथी, सिद्ध नाम है थान । सकल स्वर्ग को सीस जो, ता सम लोक न आन ।।६५ एका भवतारी महा, सरवारथसिधि बास । तिनसे देव न इन्द्र कोउ, अहमिंद्रा न प्रकाश ॥६६ कहे देवमें सार ए, तैसे व्रत में सार । शील समान न गरु कहें, शील देय भवपार ॥६७ देव माहिं जे समकिती, देव देव हैं जेहि । देव माहिं मिथ्या मती, पशु तें मूरख तेहि ।। नारक में जे समकिती, तिनसे देव न जांनि । तिरजेचनि में श्राविका, तिनसे मनुज न मांनि ॥६९ मनुजनि में जे अवती, अज्ञानी मतिमंद । तिनसे तिरजंचा नहीं, से विषय सुछंद ॥७० मनुजनि माहिं मुनन्द्रि जे, महाव्रती गुणवान । तिनसे अहमिन्द्रा नहीं, ताको सुनहु बखान ॥७१ थावर नहिं कृमिकोट से, ते सकलिन्द्री से न । पंचेन्द्री नहिं नरनि से, नर जु नरेन्द्र जिसे न ॥७२ महामंडलिक से न नृप, ते अर्धचक्री से न । अर्धचक्री नहिं चक्री से, चक्री इन्द्र जिसे न ॥७३ इन्द्र नहीं अहमिन्द्र से, ते न मुनीन्द्र समान । नाहिं मुनीन्द्र गणीन्द्र से, ज्ञानवान गुणवान ॥७४
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