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दौलतराम-क्त क्रियाकोष भ्रमण न चहुंगति भ्रमण सो, भरमें जीव अपार । पोत न मुनिव्रत सो महा, करै भवोदधि पार ||४७ द्वीप नहीं शिवद्वीप सो, गुन रतनन को रासि । तीरथनाथ जिनंद से, सारथवाह न भासि ॥४८ अंधकूप नहिं जगत सो, परै तहां तनधार । जिन विन काढे कौन जन, करिके करुणा सार ९ नाहिं भवानल सारिखी, दावानल जग माहिं। जगत चराचर भस्म कर, यामें संशय नाहिं ॥५० जिनगुण अंबुधि शरण ले, ताहि न याको ताप। तातें सकल विलाप तजि सेवी आप निपाप ॥५१ नहिं वायु जगवायु सी, जगत उड़ावे जोय । काय टापरी वापरी, याकै टिके न कोय ॥५२ जिन पद परचित आसिरी, जो नर पकरै आय । सोई यामें ऊवरै, और न कोइ उपाय ॥५३ नाहिं अतिंद्री, सुख समो, पूरण परमानन्द । नाहिं अफंद मुनीन्द्र सो, आनंदी निरद्वन्द ॥५४ नहिं दीक्षा दुख-हारिणी, जिनदीक्षासी कोय । नहिं शिक्षा सुख-कारिणी, जिनशिक्षा सी होय ॥५५
चाल जोगीरासा . फंद न कनककामिनी सरिसा, मृग नहि मूरख नरसा। नाहिं अहेरी काम लोभसा, सूर न अंध सु नरसा ॥१ काटक फंद न बोध वृत्त सा, मंदमती न अभविसा। बुद्धिवंत नहिं भव्यजीव सा, भव्य न तद्भव शिवसा ॥५६ पुरुष शलाका महाभाग से, तथा चरम तन धर से । और न जानों पुरुष प्रवीना, गुरु नहिं तीर्थकरसे ।। ते पहली भार्षे गुणवंता, अब सुनि देवस्वरूपा । इन्द्र तथा अहमिंद्र न सरखे, और न देव अनूपाः॥५७ इन्द्र न षट इंद्रनि से कोई, सौधर्म सनतकुमार। ब्रह्मेन्द्र जु अर लांतव इंद्रा, आनत आरण सारा॥ ए एका भवतारी भाई, नर है शिवपुर लेवे। सम्यकदृष्टी इंद्र सबै ही, श्री जिनमारग सेर्वे ॥५८ लोकपालहु सम्यकदृष्टी, इक भव घरि भव-पारा। इंद्र सारिखे सुर ये सोहै, इनसे देव न सारा॥ देवरिषी लोकांतिक देवा, तिनसे इन्द्रहु नाहीं। ब्रह्मचर्य धारत ए देवा, इनसे भुवन न माहीं ॥५९
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