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श्रावकाचार-संग्रह बहुरि हुतो जमदंड इक, कोटपाल गुणवन्त । नीति धर्म परभाव तें, पायौं जस जयवन्त ॥६१ सर्व गुणां हैं शील में, अरु कुशील में दोष । नाहिं कुशील समान कोउ, और पाप को पोष ॥६२ इन दोउनि के गुण अगुण, कहत न आवै थाह । जाने श्री जिनराय जू, केवल रूप अथाह ॥६३ महिमा शील महंत को, कहें महा गणधार । भाषै श्री जिन भारती, रटै साधु भव तार ॥६४ सरवारथसिधि के महा, अहमिन्द्रा परवीन । गावें गुण व्रत शील के, जे अनुभव रसलीन ॥६५ क कांति इन्द्रादि का, जपें सुजस जोगीन्द्र । लोकान्तिक वरणन करें, रटें नरिन्द्र फणीन्द्र ॥६६ चन्द्र सूर सुर असुर खग, महिमा शील करैय । सूरि सन्त अध्यापका, मन वच काय धरेय ॥६७ हम से अलपमती कहो, कैसे गुण वरणेह । नमो नमों व्रत शील कों, रहैं ऋषि शरणेह ॥६८ दया सत्य अस्तेय अर, शीले करि परणाम । भाषों पंचम व्रत्त जो, परिग्रह त्याग सुनाम ॥६९
इति चतुर्थ व्रत निरूपण ।
इन चारनि विन ना हुवै, परिग्रह के परिहार । परिग्रह के परिहार बिन, नहिं पावे भव-पार ॥७० मुनिकों सर्वहि त्यागवौ, अतंर बाहिज-संग । धर्म अकिंचन धारिवौं, करिवौ तृष्णा-भंग ||७१ अपने आतमभाव विनु, जो पररूपा वस्त । सो परिग्रह भाषौ सुधी, ताको त्याग प्रशस्त ॥७२ सर्व भेद चउबीस हैं, चउदस अर दस भेलि । अंतर बाहिज संग ये, दुरगति फलकी बेलि ॥७३ परिग्रह द्वविध त्यागिये, तब लहिये निज भाव । ब्रह्मज्ञान के शत्रु ये, नरक निगोद उपाय ॥७४ अंतरंग परिग्रह तने, भेद चतुदर्श जान । मिथ्यात्वादिक जो सबै, जिन आज्ञा उर आन ॥७५ राग द्वष मिथ्यात अर, चउ कषाय क्रोधादि । षट हास्यादिक वेद पुनि, चउदस भेद अनादि ॥७६ राग कहावै प्रीति अरु, द्वष होइ अप्रीति । राग दोष तज भव्य जन, धरै धर्म की रीति ॥७७
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