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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
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जहां तत्त्व श्रद्धा नहीं, सो मिथ्यात कहाय । जड़ चेतन को ज्ञान नहीं, भर्मरूप दरसाय ॥७८ क्रोध मान चउ लोभ ये, चउ-कषाय बलवन्त । हतिये ज्ञान सुबानतें, लहिये भाव अनन्त ॥७९ हास्य अरति अरु शोक भय, बहुरि ग्लानि बखान । तजिये षट हास्यादि का, मोह प्रकृति दुखदानि ।।८० वेद भेद हैं तीन पुनि, पुरुष नपुंसक नारि । चेतन तें न्यारै लखौ, जिनवानी उर धारि ।।८१ एक समय इक जीव के, उदय होय इक वेद । तातें गनिये वेद इक, यह गावें निरवेद ॥८२ संख असंख अनन्त हैं, इनि चउदह के भेद । अन्तरंग ये संग तजि, करिये कर्म विछेद ॥८३ अन्तर संग तजे विना, होइ न सम्यक ज्ञान । विना ज्ञान लोभ न मिटै, इह भाष भगवान ||८४ अब सुनि बाहर संग जे, दसधा हैं दुखदाय । मुनिनें त्यागे सर्वही, दीये दोष उड़ाय ।।८५ क्षेत्र वास्तु चौपद द्विपद, धान्य द्रब्य कुप्यादि । भाजन आसन सेज ये, दस परकार अनादि ।।८६ तजें संग चउबीस सहु, भजे नाथ चउबीस । सजें साज शिवलोक कों, सबमें बड़े मुनीस ॥८७ मूर्छा ममता सहु तजी, तृष्णा दई उड़ाय । नगन दिगम्बर भव तिरें, धरें न बहुरी काय ॥८८ श्रावक के ममता अलप, बहु तृष्णाकों त्याग । राग नहीं पर द्रव्य सों, एक धर्म को राग ।।८९ धरम हेत खरचै दरव, गर्व नाहिं मन माहिं । सर्व जीवसों मित्रता, दुराचारता नाहिं ॥९० जीव दया के कारणों, तजो बहुत आरम्भ । परिग्रह को परिमाण करि, तजौ सकल ही दम्भ ॥९१ लोभ लहरि मेटी जिनौ, धरियो धर्म संतोष । ते श्रावक निरदोष हैंनहीं पाप को पोष ।।९२ क्षेत्र आदि दस संग को, कियौ तिने परिमाण । राख्यो परिग्रह अलप ही, तिन सम और न जाण ॥९३ कह्यो परिग्रह दसविधा, बहिरंगा जे वीर । तिनके भेद सुनू भया, भाखे मुनिवर धीर ॥९४
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