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श्रावकाचार-संग्रह
चौपाई क्षेत्र परिग्रह खेत बखान, जहां ऊपजे धान्य निधान । वास्तु कहावे रहवा तना, मन्दिर हाट नौहरा बना ।।९५ हस्ती घोटक ऊंट रु आदि, गाय बलध महिषी इत्यादि । होय राखणों जो तिरजंच, चोपद परिग्रह जानि प्रपंच ॥९६ द्विपद परिग्रह दासी दास, पुत्र कलत्रादिक परकास । धान्य कहावे गेहूँ आदि, जीवन जनको अन्न अनादि ॥९७ धन कनकादिक सबही घात, चिन्तामणि आदिक मणि जात । चौवा चन्दन अगर सुगन्ध, अतर अगरजा आदि प्रबन्ध ॥१८ तेल फुलेल घृतादिक जेह, बहुरि वस्त्र सब भांति कहेह । ये सब कुप्य परिग्रह कहे, संसारी जीवनिने गहे ।।९९ भाजन नाम जु बासन होय, धातु पषाणा काठके कोय । माटी आदि कहाँ लग कहें, साधन भाजन ए कहु गहें ।।३०० आसन बैसनके बहु जान, सिंघासन प्रमुखा परवान । गद्दी गिलम आदि जेतेक, त्यागौ परिग्रह धारि विवेक ॥१ सज्या नाम सेजको कहो, भूमि-शयन मुनिराजनि गह्यो। ए दसधा परिग्रह द्वय रूप, कैइक जड़ कैइक चिद्रप ॥२ द्विपद चतुष्पद आदि सजीव, रतन धातु वस्त्रादि अजीव । अपने आतमतें सब भिन्न, परिग्रहतें है खेद जु खिन्न ॥३ हैं परिग्रह चिन्ताके धाम, इनको त्याग लहें शिवठाम । जिनवर चक्री हलधर धीर, कामदेव आदिक वर बीर ।।४ तजि परिग्रह धारें मुनिरूप, मुनिसम और न धर्म अनूप । मुनि होवे की शक्ति न होय, श्रावक ब्रत धारै नर सोय ॥५ करै परिग्रहको परमाण, त्यागै तृष्णा सोहि सुजाण । इह परिग्रह अति दुखको मूल, है सुखते अतिही प्रतिकूल ॥६ जैसे बेगारी सिर भार, तैसे यह परिग्रह अधिकार । जेतो थोरौ तेतौ चैन, यह आज्ञा गावें जिन बैन ॥७ तातें अल्पारम्भी होय, अल्प परिग्रह धारे सोय । ताहूको नित त्यागी चहै, मन माहीं अति विरकत रहै ।।८ जैसे राहु केतु करि कान्ति, रवि शशिकी है और हि भांति । तैसें परणति होय मलीन, आतमकी परिग्रह करि दोन ॥९ ध्यान न उपजै या करि कबै, याहि तर्जे पावें शिव तबै । समताको यह वैरी होय, मित्र अधीरपनाको सोय ॥१० मोह तनों विश्राम निवास, यातें भविजन रहहिं उदास । नासै सुखकों सुभतें दूर, असुभ भावतें है परिपूरि ॥११
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