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दौलतराम-कृत क्रियाकोष खानि पाप की दुख की रासि, रह्या आपदा को पद भासि ।
आरति रुद प्रकाशइ कंग, धर्म ध्यान का धरइ न संग। गुण अनन्त धन धारयां चहै, सो परिग्रह तें दूरहि रहै ॥१२
दोहा लोला बनि दुरध्यान को, बहु आरम्भ सरूप । आकुलता की निधि महा, संशय रूप विरूप ॥१३ मद का मंत्री काम घर, हेतु शोक को सोई। कलह तनों क्रीड़ा ग्रह, जनक वैर को होय ॥१४ धन्य घरी वह होयगी, जब तजियेगो संग । यामें बड़पन नाहिं कछु, महादोष को अंग ॥१५ हिंसादिक अपराध का, कारण मूल बखानि । जनम जनम में जीव को, दुखदाई सो जानि ॥१६ धिग धिग द्विविधा संग को, जो रोके शिव-संग । चहँ गति माहिं भ्रमाय करि, करै सदा सुख भंग ॥१७ जो यामें बडपन गिने सो मरख मति-हीन । परिग्रहवान समान नहिं, और जगत में दीन ॥१८ धन्य धन्य धरमज्ञ जे, या तुच्छ गिनेय । माया ममता मूरछा, सर्बारम्भ तजेय ॥१९ यही भावना भाव तो, भविजन रहै उदास । मन में मनिव्रत की लगन, सो श्रावक जिनदास ॥२० बहुरि बिचारै सो सुधी, अगनि धरै गुण शोत । जो कदापि तौह न कबै, परिग्रहवान अभीत ॥२१ काल कूट जो अमृता, होइ दैव संयोग । नहिं तथापि सुख होय ये, इन्द्रिन के रस भोग ॥२२ विषयनि में जे राचिया, ते रुलिहै भव-माहिं । सुख है आतन-ज्ञान में, विषय माहिं सुख नाहिं ॥२३ थिर है तड़ित प्रकाश जो, तौह देह थिर नाहिं। देह नेह करिवो वृथा, यह चितवै मन मांहिं ॥२४ इन्द्रजाल जो सत्य है, दैव जोग परवान । तौ पनि संसारी जना नाहिं कदे सुखवान ।।२५ च गति में नहिं रम्यता, रम्य आतमाराम । जाके अनुभव तें महा, है पंचमगति धाम ।।२६ इह विचार जाके भयौ, देहह अपनी नाहिं । सो कैसे परपंच करि, बढ़े परिग्रह माहिं ।।२७
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