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श्रावकाचार-संग्रह
सर्वया तेईसा हय गय पायक आदि परिग्रह, पुण्य उदै गृह होय विभौ अति । पाय विभौ पुनि मोहित होत, सरूप विसारि करें परसौं रति ॥ नारहि पोषण काज, रच्यो बहु आरम्भ बांधत दुर्गति । ज्ञानि कहै हमकू कबहूं मन, राम वहै पुनि देहहु द्यो मति ।।२८ नाहिं संतोष समान जुआन है, श्रीभगवान प्रघान सुघर्मा । है सुखरूप अनूप इहै गुण, कारण ज्ञान हरै सब कर्मा ।। पापनिको यह बाप जुलोभ, करै अतिक्षोभ करै अति मर्मा। धारि संतोष लहै गुणकाष, तजै सब दोष लहै निज-मर्मा ॥२९ रंक सबै जग राव रिषीसुर, जो हि धरै शुभ शील संतोषा । सो हि लहै निज आतम भेद, करै अघ छेद हरें दुख दोषा ।। श्रावक धन्य तजे सहु अन्य, हुए जु अनन्य गहै गुण कोषा। काम न मोह न लोभ न लेश, गहे नहिं भान दहै रति रोषा ॥३० लोभ समान न आँगुण आन, नहीं चुगली सम पाप अरूपा । सत्य हि बेन कहै मुखतें सुभ, तो सम व्रत न तथ्य निरूपा ॥ पावन चित्त समान न तीरथ, आतम तुल्य न देव अनूपा। सज्जनता सम और कहा गुण, भूषन और न कीरति रूपा ॥३१ ब्रह्म सुज्ञान समान कहा धन, औजस तुल्य न मृत्यु कहाई । देवनिको गुरु देव दयानिधि, ता सम कोई न है सुखदाई॥ रोष समान न दोष कहें वुध, मोक्ष समान न आनन्द भाई। तोष समान न कारण मोक्ष, कहें भगवन्त कृपा उर लाई ॥३२ अंग प्रसंग भये बहु संग, तिनी महिं नाहि अभंग जु कोई। शुद्ध निजातम भाव अखंडित, ता महि चित्त धरै बुध सोई। बंध-विदारण, दोष-निवारण, लोक-उधारण और न होई । जा सम कोई न जान महामति, टारइ राग विरोध जु दोई ॥३३
दोहा धन्य-धन्य श्रावक ब्रती, जो समकित धर धोर । तन धन आतम भावतें न्यारे देखै वीर ॥३४ तन धनको अनुराग नहि. एक धर्म को राग । संतोषी समता धरा, करै लोभ को त्याग ॥३५ मोह तनी ग्यारह प्रकृति शांत होय जब वीर । तब धारे श्रावक व्रता, तष्णा बजित घोर ॥३६ तीन मिथ्यात कषाय बसु, ये ग्यारह परवान । पंचम ठानें श्रावका, इनतें रहित सुजान ||३७ गई चौकरी द्वय प्रबल, जै दुरगति दुखदाय । रह्यो चौकरी द्वय अबै, तिनको नाश उपाय ॥३८
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