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दौलतराम - कृत क्रियाकोष
चितवै मनमें सासतो, है जीलग अवसाय । तौलग तीजी चौकरी उदे धरै रहवाय || ३९
अल्प परिग्रह धारई, जाके अल्पारम्भ । अवसर पाय सिताब ही, त्यागे सर्वारम्भ ॥४०
मुनितके परसाद शिव, ह्वे अथवा अहमिन्द्र | श्रावकवरत प्रभावतें, सुर तथा सुरिन्द्र ॥४१ परिग्रहको परमाण करि जयकुमार गुणधार । सुर-नर कर पूजित भयो, लह्यौ भवोदधि पार ॥४२ परिग्रहकी तृष्णा करे, लुबधदत्त गुणवीत । गयो दुरगती दुख लहे ज्यों समश्रु नवनीत ॥४३ करैजु संख्या संगकी, हरै देहतें नेह । अति न भ्रमाने नर पसू, गिनै आप सम तेह ||४४ बोझ बहुत नहि लादिबो, करनों बहुत न लोभ ।
अति संग्रह तजिवी सदा, करनों बहुत न क्षोभ ॥४५
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अति विस्मय नहिं धारिवाँ रहनों निःसन्देह । झूठी माया जगतकी, अचिरज नाहि गनेह ॥ ४६
परिग्रह संख्या वरत के, अतीचार हैं पंच | तिनकूं त्यागे जे ब्रती, तिनके पाप न रंच ॥४७ क्षेत्र वास्तु संख्या करी, ताको करै उलंघ । अतीचार है प्रथम यह, भाषै चउविधि संघ ॥४८ काहु प्रकारै भूलि करि, जोहि उलंघे नेक । अतीचार ताकों लगे, भाषै पंडित एम ॥४९ द्विपद चतुष्पद संग को, करि प्रमाण जो वीर । अभिलाषा अधिक धरे, सो न लहे भव-तीर ॥५० अतीचार दूजी इहे, सुनि तीजो अघरास । धन धान्यादिक वस्तु को, करि प्रमाण गुरु पास ।।५१ चित संकोचि सकै नहीं, मन दौरावे मूढ़ । सोन लहै व्रत शुद्धता, होय न ध्यानारूढ ॥५२ हम राख्यो परिग्रह अलप, सरै न एते माहिं । ऐसे बिकलप जो करै, वर्तमान सो नाहि ॥५३ कुप्य भांड परिग्रह तनौं, करि प्रमाण तन घारि । चित्त चाहि मेटै नहीं, सो चौथो अतिचार ॥५४ शयन नाम सेज्या तनों, आसन द्वय विधि होय । थिर आसन चर आसना, करै प्रमाण जु कोय ॥५५ पुनि अधिको अभिलाष धरि, लावे व्रत में दोष । अतीचार सो पांचमो, रोके मारग मोष ॥५६ थिर आसन सिंहासनों, ताहि आदि बहु जानि । त्यागे चक्री मंडलो, जिन आज्ञा उर आनि ॥५७ स्यन्दन कहिये रथ प्रगट, शिविका है सुखपाल । एथल के चर आसना, त्यागे भव्य भूपाल ॥५८ बहुरि विमानादिक जिके, चर आसन शुभ रूप | ते आकाश के जानिये, त्यागें खेचर भूप ॥५९
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