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श्रावकाचार-संग्रह
नाव जिहाजादिक गिनें, चर आसन जल माहि । चर आसन कों पंडिता, यान कह सक नाहिं ॥६० सकल परिग्रह त्यागिवौ, सो मुनि मारग होय । किंचित मात्र जु राखिवौ, व्रत श्रावक को सोय ॥६१ व्याधि न तृष्णा सारखी, तृष्णा सी न उपाधि । नहिं सन्तोष समान है, कारण परम समाधि ॥६२ तृष्णा करि भव वन भ्रमै, तृष्णा त्यागें सन्त । गृह परिग्रह बन्धन गिनें, ते निर्वाण लहंत ॥६३ व्रत पांचमो इह कह्यो, सम सन्तोष स्वरूप । धन्य धन्य ते धीर हैं, त्याग लोभ विरूप ॥६४ जे सीझे ते लोभ हरि, और न मारग होय । मोह प्रकृति में लोभ सो, और न परवल कोय ॥६५ सर्व गणनि को शत्रु है, लोभ नाम बलवन्त । ताहि निवारें व्रत्त ए. करें कर्म को अन्त ।।६६ नमस्कार संतोष कों, जाहि प्रशंसे धीर । जाकी महिमा अगम है, जा सम और न बोर ॥६७ जानें श्री जिनराय जू , या व्रत के गुण जेह ।
और न पूरन ना लखै, गणधर आदि जिकेह ॥६८ हमसे अलपमती कहां, कैसें कहें बनाय । नमो नमों या व्रत्त कों, जो भव पार कराय ॥६९ सन्तोषी जीवानिकों, बार-बार परणाम । जिन पायौ संतोष धन, सर्व सुखनि को धाम ।७० नहिं सन्तोष समान गुरु, धन नहिं या सम और । निर विकलप नहिं या समा, इह सबको सिरमौर ॥७१
इति पंचम व्रत निरूपण।
दया सत्य असतेय अर, ब्रह्मचर्य सन्तोष । इन पांचनिकों कर प्रणति, छ?म व्रत निरदोष ॥७२ भाषों दिसि परिमाण शुभ, लोभ नासिवे काज | जोवदयाके कारणों, उर धरि श्री जिनराज ॥७३ द्वादश ब्रत में पंच ब्रत, सप्त शील परवानि । सप्त शील में तीन गुण, चउ शिक्षा ब्रत जानि ।।७४ जैसे कोट जु नगरके, रक्षा कारण होय । तैसें ब्रत रक्षा निमित, शीत सप्त ये जोय ।।७५ वरत शील धारें सुधी, ते पावें सुखराशि । कहें व्रत अब शील के, भेद कहां परकाशि ।।७६
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