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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
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छप्पय इक चंडाली सुरझि ब्रत सेठनिपें लीयो। मन बच तन दृ६ होय त्यागि निशिभोजन कीयो । ब्रत्ततनों परभाव त्याग तन अंतिज जाया । वाही सेठनिके जु उदर उपनी वर काया । गहि जैनधर्म धरि शीलव्रत, पापकर्म सब ही दहा । लहि सुरगलोक नरलोक सुख, लोकसिखरको पथ गहा ॥३८ एक हुतौ जु शृगाल कर सुदरशन मुनिराया। त्यागौ निशि को खान पान जिनधर्म सुहाया। मरि करि हूवौ सेठ नाम प्रीतंकर जाको । अदभुत रूपनिधान धर्ममैं अति चित ताको । भयौ मुनीश्वर सब त्यागिकै, केवल लहि शिवपुर गयो। नहिं रात्रिभुक्ति परित्याग सम, और दूसरौ ब्रत लयौ ॥३९
सोरठा निशि भोजन करि जीव, हिंसक है चहुंगति भ्रमैं । जे त्यागें जु सदीव, निशिभोजन ते शिव लहें ॥४० अर्ध उमरि उपवास, माहीं बीते तिन तनी । जे जन है जिनदास, निशिभोजन त्यागें सुधी ॥४१ दिवस नारिको त्याग, निशिकों भोजन त्यागई। निशिदिन जिनमत राग, सदा व्रतमूरति बुधा ॥४२ एक मासमें भ्रात, पाख उपास फर्ले फला। जे निशि माहिं न खात, चारि अहारा धीधना ॥४३ निशि भोजन सम दोष, भयो न है है होयगौ। महा पापको कोष, मद्य मांस आहार सम ॥४४ त्यागे निशिको खान, तिन्हें हमारी वंदना। देही अभय प्रदान, जीवगणनिकों ते नरा ॥४५ कोलग कहें सुबीर, निशि भोजनके अवगुणा । जाने श्रीमहाबीर, केवलज्ञान महंत सब ॥४६
रत्नत्रय वर्णन
सोरठा अब सुनि दरसन ज्ञान, चरण मोक्षके मूल हैं। रतनत्रय निज ध्यान, तिन बिन मोक्ष न हूँ भया ।।७ सम्यकदर्शन सो हि, आतम रुचि श्रद्धा महा। करनों निश्चय जो हि, अपने शुद्ध स्वभावकों ॥४८
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