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श्रावकाचार-संग्रह
निजको जानपनो हि, सम्यकज्ञान कहें जिना । थिरता भाव घनो हि, सो सम्यकचारित्र है ॥४९
चौपाई
प्रथमहि अखिल जतन करि भाई, सम्यकदरशन चित्त धराई । ताके होत सहज ही होई, सम्यकज्ञान चरन गुन दोई ॥५० जीवाजीवादिक नव अर्था, तिनकी श्रद्धा बिन सब व्यर्था । है श्रद्धान-रहित विपरीता, आतमरूप अनूप अजीता ॥५१ सकल वस्तु हैं उभय स्वरूपा, अस्ति नास्तिरूपी ज् निरूपा । अनेकांतमय नित्य अनित्या, भगवतने भाषे सहु सत्या ॥ ५२ तामैं संशय नाहिं जु करनी, सम्यक दरसन ही दिढ़ धरनौ । या भवमैं विभवादि न चाहै, परभव भोगनिकूं न उमाहै ॥५३ चक्री केशवादि जे पदई, इन्द्रादिक शुभ पदई गिनई । कबहू वांछे कछु हि न भोगा, ते कहिये भगवतके लोगा ॥५४ जो एकांतवाद करि दूषित परमत गुण करि नाहिं जु भूषित । ताहि न चाहे मन वच तन करि, तै दरसन धारी उरमें धरि ॥५५ क्षुधा तृषा भर उष्ण जु सीता, इनहिं आदि सुखभाव वितीता । दुखकारण मैं नाहि गिलानी, सो सम्यकदरशन गुणखानी ॥५६ लोकविर्षे नहि मूढ़तभावा, श्रुति अनुसार लखे निरदावा । जैनशास्त्र बिनु और जु ग्रंथा, शास्त्राभास गिनै अघपंथा ||५७
समय विनु और जु समया, समयाभास गिनै सहु अदया । विनु जिनदेव और हैं जेते, लखे जु देवाभास सु ते ते ॥ ५८ श्रद्धानी सौ तत्त्वविज्ञानी, धरै सुदर्शव आतमध्यानी । करै धर्मकी जो बढ़वारी, सदा सु मार्दव आर्जवधारी ॥५९ पर औगुन ढ़ाकै वुधिवंता, सो सम्यकदरशनधर संता । काम क्रोध मद आदि विकारा, तिनकरि भये विकलमति धारा ॥६० न्यायमार्गत विचल्यौ चाहै, मिथ्यामारगको जु उमाहै । तिनको ज्ञानी थिर चित कारै, युक्तथकी भ्रमभाव निवारै ॥ १ आप सुथिर औरें थिर कारै, सो संम्यकदरशन गुण धारे । दयाधर्ममैं जो हि निरन्तर, करे भावना उर अभ्यंतर ॥ ६२ शिवसुख लक्ष्मी कारण धर्मो, जिनभाषित भवनाशित पर्मो । तासौं प्रीति धरै अधिकेरी, अर जिनधर्मिनसूं बहुतेरी || ६३ प्रीति करे सो दर्शनधारी, पावै लोकशिखर अविकारी । यथा तुरतके बछरा ऊपरि, गौ हित राखे मन वच तन करि ॥६४ तथा धर्म धर्मनिसों प्रीती, जाके ताने शठता जीती । आतम निर्मल करणों भाई, अतिशयरूप महा सुखदाई ॥६५
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