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दौलतराम-कृत क्रियाकोष दर्शन ज्ञान चरण सेवन करि, केवल उतपति करनी भ्रम हरि। सो सम्यक परभावनि होई, पर-भावनिको लेश न कोई ॥६६ दान तपो जिनपूजा करिके, विद्या अतिशय आदि जु धरिके। जैनधर्मको महिमा कारे, सो सम्यकदरशन गुण धारै ॥६७ ए दरशनके अष्ट जु अंगा, जे धारै उर माहिं अभंगा। ते सम्यक्ती कहिये वीरा, जिन आज्ञा पालक ते धीरा ॥६८ सेवनीय है सम्यकज्ञानी, माया मिथ्या ममता भानी । सदा आत्मरस पीवे धन्या, ते ज्ञानी कहिये नहिं अन्या ॥६९ यद्यपि दरशन ज्ञान न भिन्ना, एकरूप हैं सदा अभिन्ना। सहभावी ए दोऊ भाई, तो पनि किंचित भेद धराई ।।७० भिन्न, भिन्न आराधन तिनका, ज्ञानवंतके होई जिनका। एक चेतनाके हुँ भावा, दरसन ज्ञान महा सुप्रभावा ॥७१ दरसन है सामान्य स्वरूपा, ज्ञान विशेष स्वरूप निरूपा। दरसन कारन ज्ञान सु कार्या, ए दोऊ न लहे हि अनार्या ॥७२ निराकार दर्शन उपयोगा, ज्ञान धरै साकार नियोगा। कोळ प्रश्न करे इह भाई, एककाल उत्पत्ति बताई ॥७३ दरसन ज्ञान दुहुनिको तातें, कारन कारिज होइ न तातें। ताको समाधान गुरु भार्षे, जे धार ते निजरस चाखै ।।७४ जैसे दीपक अर परकासा, एककाल दुहुँ को प्रतिभासा । पर दीपक है कारनरूपा, कारिजरूप प्रकाशनरूपा ॥७५ तेसै दरशन ज्ञान अनूपा, एककाल उपजै निजरूपा । दरशन कारनरूपी कहिये, कारिजरूपी ज्ञान सु गहिये ॥७६ विद्यमान हैं तत्त्व सबै ही, अनेकांततारूप फबै ही। तिनको जानपनों जो भाई, संशय विभ्रम मोह नशाई ॥७७ जो विपरीत रहित निजरूपा, आतमभाव अनूप निरूपा । सो है सम्यकज्ञान महंता, निजको जानपनों विलसंता ॥७८ अष्ट अंगकरि शोभित सोई, सम्यकज्ञान सिद्ध कर होई। ते धारो भवि आठों शुद्धा, जिनवाणी अनुसार प्रबुदा ॥७९ शब्द-शुद्धता पहलो अंगा, शुद्ध पाठ पढ़ई जु अभंगा। अर्थ-शुद्धता अंग द्वितीया, करै शुद्धअर्थ जु विधि लोया ॥८० शब्द अर्थ दुहको निर्मलता, मन वच तन काया निहचलता। सो है तीजो अंग विशुद्धा, सम्यन्ता धारै प्रतिबुद्धा ॥८१ कालाध्यायन चतुर्थम अंगा, ताको भेद सुनो अतिरंगा । जा विरियां जो पाठ उचित्ता, सोहा पाठ करै जु पवित्ता ॥८२ विनय अंग है पंचम भाई, विनयरूप रहिवौ सुखदाई। सो उपधान हैं छट्टम अंगा, योग्य क्रिया करिवी जु अभंगा ।।८३
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