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श्रावकाचार-संग्रह
जिनभाषितकों अंगी करनी, सो उपधान अंगको घरनी । सप्तम है बहुमान विख्याता, ताको अर्थं सुनू तजि घाता ॥८४ बहुसतकार आदर करिके, जिन आज्ञा पाले उर घरिके । अष्टम अंग बनिन्हव घारे, ते अष्टम भूमी जु निहारे ॥ ८५ जा गुरुके ढिग तत्त्वविज्ञाना पायो अदभुत रूप निधाना। ता गुरुको नहि नाम छिपावे, बार बार महागुण गावे ॥८६ को कहिये जु अनिन्हव अंगा, ज्ञानस्वरूप अनूप अभंगा । सम्यक ज्ञान तनू आराधन, ज्ञानिनिकों करनू शिव-साधन ॥८७ दरशन मोह रहित जो ज्ञानी, तत्त्वभावना दृढ़ ठहरानी । जे हि जथारथ जानें भावा, ते चारित्र धरे निरदावा ॥८८ बिना ज्ञान नहिं चारित सोहै, बिना ज्ञान मनमथ मन मोहै । तातें ज्ञान पीछे जु चरित्रा, भाष्यो जिनवर परम पवित्रा ॥८९ सर्व पाप-मारग परिहारा, सकल कषाय-रहित अविकारा । निर्मल उदासीनता रूपा, आतमभाव सु चरन अनूपा ॥९० सो चारित्र दोय विधि भाई, मुनि श्रावक व्रत प्रगट कराई । मुनिको चारित सर्व जु त्यागा, पापरीतिके पंथ न लागा ॥९१ ताके तेरह भेद बखानें, जिनवानी अनुसार प्रवानें ।
पंच महाव्रत पंच जु समिती, तीन गुपतिके धारक सुजती ॥९२ चउविधि जंगम पंचम थावर, निश्चयनय करि सब हि बराबर । तिन सर्वनिकी रक्षा करिवौ, सो पहलो सु महाब्रत घरिवी ॥९३ संतत सत्य वचनको कहिवो, अथवा मौनव्रतकों गहिवौ । मृषावाद दौले नहि जोई, दूजी महाब्रत है साई ॥९४ कौड़ी आदि रतन परजंता, घटि अघटित तसु भेद अनन्ता । दत्त दत्त न परसे जोई, तीजो महाब्रत है सोई ॥९५ पशु पंछी नर दानव देवा, भववासा रमनी-रत मेवा । तर्ज निरन्तर मदन विकारा, सो चौथो जु महाब्रत भारा ॥९६ द्विविधि परिग्रह त्यागे भाई, अन्तर बाहिर संग न काई । नगन दिगम्बर मुद्रा धारा, सो हि महाव्रत पंचम सारा ॥ ९७ ईर्यासमिति ऋषी जो चालै, भाषासमिति कुभाषा टाले । भखै अहार अदोष मुनीशा, ताहि एषणा कहै अधीशा ॥९८ है आदान निक्षेपा सोई, लेहि निरखि शास्त्रादिक जोई । अर रिठवणा पंचम समिति, निरखि शास्त्रादिक जोई। अर परिठवणा पंचम समिती, निरखि भूमि डारै मल सुजती ॥९९ मनोगुप्ति कहिये मन- रोघा, वचन गुप्ति जो वचन निरोधा । कायगुप्ति काया बस करिवो, ए तेरह विधि चारित घरिवौ ॥ २१००
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