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श्रावकाचार संग्रह दग्ध क्रिया पाछे परिवार, पानी देय तब तिह बार । दिन तीजो सो तीयो करे, भात सरा इम ताके धरे ॥८१ चाँदी सात तवा परिडारि, चन्दन टिपकी दे नर नारि । पानी दे पत्थर खटकाय, जिन दर्शन करिके घर आय ||८२ सब परिजन जीमत तिहिं बार, वांबां करते गास निकार । सांझ लगै तिहि ढांकरि खाय, गाय बछाक देय खवाय ॥८३ जिह थानक मृवो जन होय, लीपै ठाम करै सुख होय । फेरे ता परि के रडी, ए मिथ्यात क्रिया अति बड़ी ।।८४ ए सब क्रिया जैन मत माँहि, निंद सकल भाषै सक नाहि । अवर क्रिया जे खाटी होय, सकल त्यागिए बुध जन सोय ॥८५ जब जिय निज तजि के परजाय, उपजे दूजी गति मैं जाय। इक दुय तिन समये के मांहि, लेइ आहार तहां सक नाहि ।।८६ गति माफिक पर्यापति धरै, अन्त मुहरत पूरो करै। जिह गति ही में मगन रहाय, पिछलो भव कुण याद कराय ॥८७ पिंड मेल्हि तिहि कारण लोय, धोक दिये जै लै नहीं सोय । पाणी देवे की जो कहै, मूए को कबहुं न पहौंचिहें ॥८८ भात सराई काकै हेत, वह तो आय आहार न लेत । जाकै निमित्त काढ़िये गास, पहुंचै वहै यहै मन आस ।।८९ सो जाणे मूरख की वाणि, मूवो गास लेय नहिं आणि । गउ के रडी गास ही खाहि, अरे मूढ किम पहुँचै ताहि ॥९० मृत्यकभूमि फिरै के रडी, सो मिथ्यात भूल अति बड़ी । उलटी किरिया ते है पाप, जो दुरगति दुख लहै संताप ॥९१ याते जैन धरम प्रति पाल, जे शुभ क्रिया अझूठी चाल । तिनहिं भूलि मति करियो कोय, जो आगम हिरदै दृढ़ होय ।।९२ पूरी आयु करिवि जिय मरै, ता पीछे जेनी इम करे । घड़ी दोय मैं भूमि मसान, ले पहुँचे परिजन सब जान ॥९३ पीछे तास कलेवर माहिं, त्रस अनेक उपजे सक नाहिं । मही जीव बिन लखि जिह थान, सूको प्रासुक ईंधण आन ॥९४ दगध करिवि आवै निज गेह, उसनोदक स्नान करेह । वासर तीन वीति है जबै, कछु इक सोक मिटण को तबै ॥९५ स्नान करिवि आवे जिन-गेह, दर्शन करि निज घर पहुँचेह । निज कुल के मानुष जे थांय, ताके घर ते असन लहाय ॥९६ दिन द्वादश वीते है जबे, जिन मन्दिर इम करिहै तबे। अष्ट द्रव्य तें पूज रचाय, गीत नृत्य वाजित्र बजाय ॥९७ शक्ति जोग उपकरण कराय, चंदोवादिक तासु चढ़ाय । करिवि महोछब इह विधि सार, पात्र दान दे हरष अपार ॥९८
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