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भारकाचार-संग्रह चोरी उपदेश न दीजिये ए, लीजे नहीं चोरी आणी वस्तु तो। राजनीति न विलोपी ए, रोपीये प्रगट प्रशस्त तो ॥५६ तुला मान निरतां राख तो, अधिक ओछो न वि कीजीइए तो । सखर निखर वस्तु ममेल तो, घाट वस्तु न वि दीजिए तो ॥५७ इणि परे पंचे भेद लीउ ए, अतीचार दोष टाल तो। थूल पणे त्रोजो अणुव्रत ए, मन वचन कायाइ संभाल तो ।।५८
दोहा
अचौर्य अणुव्रत आचरी, पंच रहित अतिचार । सुर नरवर पूजा लही, श्री वारिषेण कुमार ॥१ .
श्रेणिक भूपति-नन्दन, चेलणा उरि अवतार। स्तेय विरती व्रत फल लही, वारिषेण पाम्यो भवपार ॥२ तेह कथा में पहिली कही, स्थितिकरण अंग मझार । ते सम्बन्ध तिहाँ जाणजो, संक्षेपै कहियो सार ॥३ जिण-जणे चोरी आदरी, इहि लोक देखी दुक्ख । पर भवि ते दुरगति गया, कही न वि पायी सुक्ख ।।४ इम जाणिय चोरी परिहरि, धरइ जे अचौर्य भवतार । जिन सेवक पदमो कहे, ते पांमे भवपार ॥५
भास वैरागी अचौर्यव्रत इम वर्णवी हो, हवे सुणो शीलव्रत । चौथो अणुव्रत उजलो हो, थूल पणे जीव-सहित, हो जीवड़ा ॥१ ब्रह्मचर्य दृढ़ पालो, पर-नारी संगति टालो हो, जीवड़ा। अग्नि साखे जे नारी वरी हो, तेह सुं कीजे संयोग।। काम-रोग शान्ति हेतु हो, सन्तान-काजे सेवा भोग, हो जीवड़ा ॥२ स्वदार-सन्तोष कीजिये हो, निवृत कीजे परदार ।। एह वं अणुव्रत गृहमेधी हो, थूल ब्रह्मचर्य धार, हो जीवड़ा ॥३ पर-नारी सह परिहरो हो, वृद्ध यौवन रूप बाल । मात बहिन पुत्री समी हो, लेखवो ते सकोमाल, हो जीवड़ा ॥४ नारी परायी दूरि तजो हो, घृणि भजो तेह संग ।। काम क्रीड़ा न वि कीजिए हो, दोजे नही दृष्टि रंग, हो जीवड़ा ॥५ हास्य बहु आले तजो हो, मूकीए नहीं निजलाज । मरम वयण न वि बोलिए हो, मयण चेष्टा तणी काज, रे जीवड़ा ॥६ बात गोष्ठी संगति तजो हो, झुणि चिनुत सराग । रूप निरीक्षण नारी तणों हो, घृणुं म चिंतो सोभाग, रे जीवड़ा ॥७ पर नारी सांपणि-समी हो, राग विष विकराल । दृष्टि विषसम दूर धरी हो, साधी बाल गोपाल, हो जीवड़ा ॥८
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