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________________ २०२ श्रावकाचार संग्रह दोहा एह कथन सुनि भविक जन, करि चित में निरधार। कथित आन मत दान जे, तजहु न लावौ बार ॥१४०० पाप बढ़ावन दुःखकरन, भव भटकावन हार । जास हृदय सत जैन दृढ़, त्यागे जानि असार ॥१ इति नवग्रह शान्ति विधिः। बष निव तन संबंधी किया कथन चौपाई निज तन संबंधी जे क्रिया, करहु भव्य तामें दे हिया । शयन थकी जब उठिये सवार, प्रथमहि पढ़े मन्त्र नवकार ॥२ प्रासुक जल भाजन कर-मांहि, त्रस-भूषित जो भूमि तजाहि । वृद्धि नीति को जैहै जबै, अवर वसन तन पहरे तवे ॥३ नजरि निहारि निहारि करत, जीव-दया मन मांहि धरंत । होत निहार पर्छ जल लेइ, वामां करते शोच करेइ ।।४ फिरि मांटी वामा कर मांहि, वार तीन ले धोवे ताहि । बर तहतें बावै घर करी, वस्त्रादिक सपरस परिहरी ॥५ कर घोवण कों ईटा खोह,लेह तदा पद मदित सोह । बालू अरु भसमी करि धारि, हाथ धोइ नागरि नर-नारि ॥६ वांवो हाथ फेरि तिहुंबार, धोवै जुदो गारि करि धार । हाथ दाहिणो हूँ तिहुं बार, धोवै जुदो वहै परकार ॥७ माटी ले दुहं हाथ मिलाय, घोवै तीन बार मन लाय । पच्छिम दिशि मुख करिके सोइ, दातुण करिय विवेकी जोइ ।।८ स्नान करन जल थोड़ो नाखि, कीजे इह जिन आगम साखि । करुणा कर मन मांहि विचारि, कारिज करिए करुणा धारि ॥९ प्रथमहि महि देखिए नैन, जहँ त्रस जीव न लहे अचैन । रहै नहीं सरदी बहु बार, स्नान जहां करिहै बुध धार ॥१० पूरब दिसि सन्मुख मुख करे, उजरे वसन उत्तर दिसि धरे। जीमत वार धोवती धार, अवर सकल ही वसन उतारि ॥११ सिर डाढो सब राखै जबै, स्नान करै किरिया जुत तबै । लोकाचार उठे किहि तणे, तबहू स्नान करत ही वर्णे ॥१२ तिय सेवै पीछे इह जाणि, परम विवेकी स्नानहि ठाणि। शयन जुदी सेज्या परि करे, इम निति हो किरिया अनुसरं ॥१३ राति सुपन मैं मदन द्रवाय, धातु विष को कारण पाय । कपड़े दूरि डारि निरधार, जल तं स्नान कर तिहि बार ॥१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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