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मंगलाचरण
जहां मुनी निजध्यान करि, पावें केवलज्ञान । वंदों ठौर प्रशस्त जो, तीरथ महानिधान ॥५२ जा थानकसों केवली, पहुंचे पुर निर्वाण । वंदों धाम पुनीत जो, जा सम थान न आन ॥५३ तीर्थकर भगवान के, वंदों पंच कल्याण ।
और केवली कों नमों, केवल अर निर्वाण ॥५४ नमों उभैविधि धर्म को, मुनि श्रावक निरधार। धर्म मुनिन को मोक्ष दे, काटे कम अपार ॥५५ तातें मुनि-मत अति प्रबल, बार-बार थुति जोग । धन्य धन्य मुनिराज तें, तजें समस्त अजोग ॥५६ पर परणति जे परिहरें, रमें ध्यान में धीर।। ते हमकू निज दास करि, हरी महा भव-पीर ॥५७ मुनि की क्रिया बिलोकि के, हम पे वरनि न जाय । लौकिक क्रिया गृहस्थ की, वरणूं मुनि-गुण ध्याय ॥५८ यतिव्रत ज्ञान विना नहीं, श्रावक ज्ञान विना न । बुद्धिवंत नर ज्ञान विन खोवें वादि दिनान ॥५९ मोक्ष मारगी मुनिवरा, जिनकी सेव करेय । सो श्रावक धनि धन्य है, जिनमारग चित्त देय ॥६० जिन-मंदिर जो शुभ रचे, अरचे जिनवर देव । जिनपूजा नित-प्रति करे, करे साधुकी सेव ॥६१ करे प्रतिष्ठा परम जो, जात्रा करै सुजान। जिन शासन के ग्रन्थ शुभ, लिखवावै मतिमान ॥६२ चउविधि संघतणो सदा, सेवा धारे वीर। पर उपकारी सर्व की, पीड़ा हरे जु वीर ॥६३ अपनी शक्ति प्रमाण जो, धार तप अर-दान । जीवमात्र को मित्र जो, शीलवन्त गुणधाम ॥६४ भाव शुद्ध जाके सदा, नहिं प्रपंच को लेश । पर-धन पाहन सम गिनै, तृष्णा तजी विशेष ॥६५ तातें गृहपति हू प्रबल, ताकी क्रिया अनेक । जिनमें त्रेपन मुख्य है, तिनमें मुख्य विवेक ॥६६ नमस्कार गुरुदेव कों, जे सब रीति कहेय । जिनवानी हिरदै धरी, ज्ञानवन्त व्रत लेय ॥६७ क्रियाकांड कों करि प्रणति, भाषों किरिया कोष । जिनशासन अनुसार शुभ, दयारूप निरदोष ॥६८ प्रथमहि त्रेपन जे क्रिया, तिनके वरणों नाम । ज्ञान-विराग-सरूप जे, भविजनकू विश्राम ॥६९
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