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श्रावकाचार-संग्रह
तिन सबकों परणाम करि, प्रणमों सिद्ध अनंत । आचारिज उपाध्याय कों, बिनऊं साधु महन्त ॥३४ तीन काल के जिनवरा, तीन काल के सिद्ध । तीन काल के मुनिवरा, वंदों लोक प्रसिद्ध ॥३५ पंच परमपद-पद प्रणमि, वन्दों केवलवानि । वदों तत्त्वारथ महा, जैनधर्म गुण-खानि ॥३६ सिद्धचक्रकू वंदिके सिद्धमंत्रकू वंदि। नमि सिद्धान्त-निबन्धकों, समयसार अभिनंदि ॥३७ वंदि समाधि तन्त्रकू, नमि समभाव-सरूप । नमोकारकू करि प्रणति, भाषों ब्रत्त अनूप ।।३८ चउ अनुयोगहि वंदिकें, चउ सरणा ले सुद्ध । चउ उत्तम मंगल प्रणमि, कहूँ क्रिया अविरुद्ध ॥३९ देव-धर्म गुरु प्रणति करि, स्यादवाद अवलोकि । क्रियाकोष भाषा कहूं, कुदकुद मुनि ढोकि ॥४० अरचों चरचा जैनकी, चरचों चरचा जैन । क्रोध लोभ छल मोह मद, त्यागि गहूँ गुन वैन ॥४१ कृत्रिम और अकृत्रिमा जिनप्रतिमा जिनगेह । तिन सबकू परणाम करि, धारूं धर्म सनेह ॥४२ गाऊं चउविधि दान शुभ, गाऊं दसधा धर्म। गाऊं षोडश भावना, नमि रतनत्रय धर्म ॥४३ स्तवळं सर्व यतीसुरा, विनऊं आर्या सर्व । सब श्रावक अर श्राविका, नमन करों तजि गर्व ।।४४ करों बीनती मना धर, समदृष्टिसो एह । अपनों सौं धीरज मुझे, देहु धर्म में लेह ॥४५ लोक-शिखर पर थान जो मुक्ति क्षेत्र सुख-धाम । जहां सिद्ध शुद्धातमा, तिष्ठे केवल राम ॥४६ नमो नमों ता क्षेत्र कों, जहां न कोई उपाधि । आधि ब्याधि असमाधि नहिं, वरतै परम समाधि ।।४७ प्रणमि ज्ञान कैवल्य को केवलदर्शन ध्याय । यथाख्यात चारित्रकूबंदों सीस नमाय ॥४८ प्रणमि सयोगिस्थानकों, नमि अजोग गुणथान । क्षायिक सम्यक वंदिके, वरणों ब्रत्तविधान ॥४९ वन्दों चउ आराधना, वंदों उपशमभाव । जाकरि क्षायिकभाव है, होय जीव जिनराव ॥५० मूलोत्तर गुण साधुके, द्वै जिनकरि जन सिद्ध । तिनकू वंदि कहूँ क्रिया, त्रेपन परम प्रसिद्ध ॥५१
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