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मंगलाचरण
भरतैरावत दस विर्षे, कालचक्र है दोय । अवसप्पिणी उतसप्पिणी, षट् षट् काला सोय ॥१६ तिनमें चौथे काल ही, उपजें जिन चौबीस। द्वादश चक्री नव हली, हरि प्रतिहरि अवनीस ॥१७ त्रिसठि सलाका पुरुष ए, जिन मारग धर धीर । इनमें तीर्थंकर प्रभू, और भक्ति वर वीर ॥१८ तात मात जिनदेव के, चौबीसा चौबीस । नौ नारद चौदा मनूं, कामदेव चौबीस ॥१९ एकादश रुद्र महा, इत्यादिक पद धार। उपजें चौथे काल ही, ए निश्चय उर धार ॥२० या विध भए अनन्त जिन, होसी देव अनन्त । सबको मारग एक ही, ज्ञान क्रिया बुधिवन्त ।।२१ सब ही शान्ति-प्रदायका, सबही केवल रूप । सब ही धर्म-निरूपका, हिंसा-रहित सरूप ॥२२ सबही आगम भासका, सब अध्यातम मूल । युक्ति-मुक्ति-दायक सबै, ज्ञायक सूक्षम थूल ॥२३ बरणन में आवें नहीं, तीन काल के नाथ । सर्व क्षेत्र के जिनवरा, नमों जोरि जुग हाथ ॥२४ भरत क्षेत्र यह आपनो जम्बूद्वीप मझारि । ताके में चौबीसिका, बन्दू श्रुत-अनुसारि ॥२५ निर्वाणादि भये प्रभू, निर्वाणी चौबीस । ते अतीत जिन जानिये, नमों नाय निज शीस ॥२६ जिन भाष्यो द्वे विधि धरम, परम धाम को मूल । यति श्रावक के भेद करि, इक सूक्षम इक थूल ॥२७ बहुरि वर्तमाना जिना, रिषभादिक चौबीस । नमों तिनें निज भाव करि, जिनके राग न रीस ॥२८ तिनहूँ सो ही भाषियो, द्वे विधि धर्म विसाल । महाव्रत अणुव्रतमय, जीवदया प्रतिपाल ॥२९ बहुरि अनागत काल में होंगे तीरथनाथ । महापद्म प्रमुख प्रभु, चौबीसा बड़हाथ ॥३० तातें सो ही भासि है, जे जो अनादि प्रबन्ध । सबको मेरी वन्दना, सबको एक निबन्ध ॥३१ चौबीसी तीनूं नमू, नमों तीस चौबीस । सीमंधर आदिक प्रभू, नमन करों पुनि बीस ॥३२ पन्द्रा कर्मधरा सवै, तिनमें जे जिनराय । अर सामान्य जु केवली, वर्ते निर्मल काय ॥३३
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