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श्री दौलतराम कृत क्रियाकोष
मंगलाचरण
दोहा
प्रणमि जिनन्द मुनिंद को नमि जिनवर-मुख वानि । क्रियाकोष भाषा कहूं, जिन आगम परवानि ॥१ मोक्ष न आतम-ज्ञान बिन, क्रिया ज्ञान बिन नाहि । ज्ञान विवेक विना नहीं, गुन विवेक के मांहि ॥२ नहिं विवेक जिनमत विना, जिनमत जिन बिन नाहिं । मोक्ष मूल निर्मल महा, जिनवर त्रिभुवन माहिं ॥३ तातें जिनको बन्दना, हमरी बारंबार । जिनतें आपा पाइये, तीन भुवन में सार ॥४ द्वीप अढाई के विर्षे, आरज क्षेत्र अनूप । सौ ऊपर सत्तरि सबे, ब्रतभूमि शुभरूप ॥५ जिनमें उपजे जिनवरा, व्रतविधान निरूप । कबहूँ इक इक क्षेत्र में, इक इक है जिनभूप ॥६ तब सत्तरि सौं ऊपरें, उतकिष्टे भुवनेस । तिनमें महा विदेह में, अस्सी दूण असेस ॥७ भरतैरावत क्षेत्र दस, तिनके दस जिनराय । ए दस अर वे सर्व ही, सौ सत्तरि सुखदाय ॥८ घटि है तो जिन बीसतें, धटै न काहू काल । पंच विदेह विष महा, केवल रूप विशाल ॥९ चले धर्म द्वय सासता, यति श्रावक व्रतरूप । टलै पाप हिंसादिका, उपजें पुरुष अनूप ॥१० कालचक्र की फिरणि बिन, कुलकर तहां न होय । नाहिं कुलिंगम वरति है, तातें रुद्र न जोय ॥११ तीर्थाधिप चक्री हल, हरि प्रतिहरि उपजन्त । इन्द्रादिक आवें जहां; करें भक्ति भगवन्त ॥१२ तीर्थकर अर केवली, गणधर मुनि विहरन्त । जहां न मिथ्यामारगी, एक धर्म अरहन्त ।।१३ तात मात जिनराज के, अर नारद फुनि काम । परगट पुरुष पुनीत बह, शिवगामी गुण धाम ॥१४ हवें विदेह मुनिवर जहां, पंच महाव्रत धार । तातें महाविदेह में, सत्यारथ सुखकार ॥१५
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