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श्रावकाचार-संग्रह
ब्रह्मचारी देवनें कही ए, अर श्री लक्ष्मी नार तो। राधासू क्रीड़ा करि ए, सोल सहस्र स्त्री भरतार तो ॥३५ जीव दया धर्म कहे ए. करे जीवनों घात तो। पुण्य कारण प्राणी हणे य, धर्म तणी कहे क्षात तो ॥३६ यागि अग्नि जीव होमो ए, नरक जवाजा बाग तो । मीढा महिष जे बावड़ा ए, पसुअ प्राण करे घात तो ॥३७ वेद माही दया कही ए, वेद मध्य हिंसा कर्म तो। जस कर्मे जीव हणिए, ए विपरीत कुधर्म तो ॥३८ शौच काजि स्नान करिए, नवि हणि मांहि चर्मपात्र तो। अशुचि अस्थि वली आदरीए, ते विपरीत कुशास्त्र तो॥३९ जीव हणी स्वर्ग वांछोए ए, तो नरकें किम होइ तो। पाप करे जो सुख होइए, तो पुण्य निष्फल जोइ तो ॥४० जलता जीव जु सुख होइ ए, तो क्यों न दीइ माय बाप तो। विपरीत भाष्या मोटा जीव ए, ते वाहे पर आप तो ॥४१ दीन जीव तृण-भक्षक ए, ते बोल्या बलि कर्म तो। बाघ सिंह क्यों न कह्या ए, ते दे बलि तो मर्म तो ॥४२ सहस्र अठ्यासी रिखि कह्या ए, जदू जुद् भाष्यो तेण तो। विपरीत मत ते जाणीए, ते वर्णव्यों जाइ केणि तो॥४३ श्रावस्ती नयरी पती ए, वसु नामि नरेन्द्र तो। क्षीर कदम्बा द्विज सूरी ए, तस पुत्र पर्वत भद्र तो ॥४४ निज पिताइ दीक्षा ग्रही ए, पर्वत रह्यो निज गेह तो। नारद सख्य-शिरोमणि ए, आसन्न भव्य जीव तेहू तो ॥४५ वेद पढ़ता पर्यंत कहू ए, अज सबदि छाग जाणि तो। अज त्रयो वरसतणा व्रीही ए, इम कहें नारद वाणि तो॥४६ माहो माहे विवाद करिए, माने नहि पर्वत मूढ तो। गुरु-भ्राता जे वस्तु करया ए, तेह वचन सत्य प्रौढ़ तो ॥४७ पर्वत-माता ए सांभल्युं ए, पुत्र-वाणी असत्य तो। पृच्छनपणे वसु वीनव्यो ए, वर-दान मांगि अनुमति तो ॥४८ मुझ पुत्र-वाणी थापज्यो ए, कृपा करी वसु भूपाल तो। मूढपणों तिण मांनीउ ए, निज घर आवी ते बाल तो ॥४९ राजसभा सह देखता ए, नारद पर्वत कहे वाणि तो। आपणे गुरू अर्थ कुण कह्यो, अज शब्द तणो जाणि तो ॥५० पर्वत दोल ते यापीए तु ए, भूप होय वसु मिथ्यात तो। फटिक सिंहासन कांपीओ ए, भूमिओ उ निपात तो॥५१ कूटी साख जब भूप कझो ए, तब हुओ हा-हाकार तो। धरा विकसी अधो गति गयो ए, सातमी नरक मझार तो ॥५२
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