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पदम-कृत श्रावकाचार
सुर-नर खग धिक्कार करी ए, कीयु पर्वत निःसार तो। नारद वाणी सत्य सही ए, जिन-शासन जयकार तो ॥५३ पर्वत वन जाय चितवि ए, मुझ वचन कयुं विस्तार तो। कर्मयोगे कालासुर साहाज ए, मधुपिंगल जीव गमार तो ॥५३ यजुर्वेद याग रच्यो ए. जीवतणा बहुघात तो। याजक जन स्वर्ग लहे ए, एहवी कहे खोटी बात तो ॥५४ भोला लोक भ्रमें पड्या ए, न लहि धर्म-विचार तो। पर्वत मरि नरके गया ए, दुक्ख सहे पंच प्रकार तो ॥५५ ए मिथ्यात जिणे कर्यो ए, करै छ करसी जेह हो । तेहनां दक्ख नो पार नहिं ए.ये घणं सं वर्णवं तेह तो ॥५६ मुनिसुव्रत तीर्थ समिए ए, उपज्यो मिथ्यात्व विपरीत तो। पंचम काल घणुं विस्तर्यो ए, दुर्द्धर दीसे कलि रीत तो ।।५७ जे जिन शासन थी जुओ ए, तेह मिथ्यात नुं जाण तो। संक्षेपे कवि कथा हुँ कह्य ए, विस्तार महापुराण तो ॥५८ विनय मिथ्यात्व मरीचि यथा ए, भरत चक्री तणुं पुत्र तो। दर्शन रूप पाखंड घणा ए, कर्म वशि विचित्र तो ॥५९ एक दंड त्रिदंड धरिए, शिखा शिर एक मुंड तो। नग्न वेष जटा धरिए ए, काने मुद्रा करि-दंड तो ॥६० चरम कंबल कोपीन धारिए, शींगी वाइ गीत ग्यान तो। शंख बजावे भस्म लगाइ ए, पवनपुरे चलि रीत तो ॥६१ विनय करी, गुणि निर्गुणी ए, दंडरूपे नमस्कार तो। बाल वृद्ध सहु ने नमें ए, न वि लहे तत्त्व विचार तो ॥६२ कंदमूल वारिए ए, अणगल जल करि स्नान तो। अपेय अभक्ष ते आदरे ए, न वि जाणे विज्ञान तो ॥६३ शिला धरि कभो रह्यो ए, अधो शिर ऊँचा चरण तो। पंचाग्नि साधे तप ए, कष्ट करे वली मरण तो॥६४ नैयायिक सांख्य मत ए, चारवाक मत कीध तो। सोल पंचवीस तत्त्व कह्यो ए, निज निज कल्पे बुद्धि तो।।:५ आत्म स्वरूप ते न वि लहे ए, एक कडु चन्द्र आकाश तो। जल कुम्भ-प्रतिबिम्ब जिम ए, जू जूआ शरीर निवास तो ॥६६ आदोश्वर आदि करीए, आज लगे उतपन्न तो।। हित-अहित ते न वि लहे ए, न वि लहे कृत्य-अकृत्य तो ॥६७ कुदर्शन कुज्ञान तप ए, कुत्सित ते आचार तो। तिसहु कर्म विडम्बणा ए, विनय मिथ्यात विकार तो ।।६८ जिनवाणी हृदय धरो ए, जुओ तत्त्व विचार तो। विनय मिथ्यात सहु परिहरो ए, अनुसरो जिनधर्म सार तो ॥६७
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