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श्रावकाचार संग्रह
वार मिथ्या उपपाद माहि, तिहां जन्म न पावे ।
सम्यग्दृष्टि प्राणी आ, अल्प योनि न वि जावे ॥७९ बहिरा वारा बोबडा, बहु अन्ध विकराल । कोढी काला कुत्सित, न वि होइ मृत्यु अकाल ॥८० एह आदे जे कष्टकारी, तिहां नहीं अवतार । सम्यदृष्टी, न वि लहे दुःख संसार ।।८१
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दोहा सम्यदृष्टी आतमा, उत्तम स्वर्ग अवतार । इन्द्र अहमिन्द्र ऊपजे, महधिक देव मंझार ॥१ कामधेनु चिन्तामणी, कल्पवृक्ष निधान । देवीस्युं क्रीडा करे, भूधर चैत्य उद्यान ।।२ उत्तम नर मांहे ऊपजे, भोगभूमि भागवंत । दशविध कल्पतरुतणा सुख लहे महंत ॥३ कर्मभूमि कुल महधिक, उपजे राज अधिराज । मंडलीक महामंडलीक, कान्ह कशव बलराज ॥४ चक्रवत्ति षखंडतणी, तीर्थंकर पदसार । सुर नर सहु सेवा करे, आपे मोक्ष दुबार ॥५ सम्यग्दृष्टी सजनतणों, महिमा कह्यो किम जाइ । सुर नर वर सुख भोगवी, अनुक्रमे सिद्ध थाइ ॥६ इम जाणी निश्चय करी, सेवो समकित रत्न । जनमि जनमि सुखदायक, सदा करो तस जत्न ॥७
अथ भास अविकानी सम्यग्दृष्टी जेह जीव, तेह लक्षण हवे सांभलो ए। निःशंकित आदे अष्ट अंग संवेग गुण ऊजलो ए॥१ उपजे पंचवीस दोष, समकित ना जत्न करो ए।।
तेहतणां सुणो हवे भेद, सम्यग्दृष्टि मल परिहरि ए॥२ मढ त्रय मद अष्ट, छ अनायतन दुद्धर ए। संका आदि दोष, पंचवीस मल निरभर ए॥३ देवमढ, शास्त्रमूढ लोकमूढ त्रण भेद ए। न लहे देवस्वरूप, मूर्खपणु' तेहने मन मनि ए॥४ देव एक अरिहंत, तेह विना दूजा नहि ए । अवर करे जो सेव, देवमूढ मल ते सही ए॥
अवध सणी जे शास्त्र, हित अहित ते नवि लहे ए। तत्त्व अतत्त्व गुण दोष, विचार भेद ते नवि कहि ए॥६ मारह संगीत कोकशास्त्र, मिथ्यापंथ जो रोपीया ए।
ज्योतिष वेद कुवाद कुगुरुमुखे निरूपिआ ए ॥७ लोकमढ लोकीक, कुतीर्थ जात्राए जे गमिए । गंगा जमुना पुष्कर सागर-संगम जे भमिए ।।८ शीत उष्ण पडवेय, भेरव बीज गुरु त्रीजए । रक्ष संयोग पांचमि, शील सातमि आठमि दोजए ।।९
तुलीतु नवमी अहव दशमी, एक द्वादसी अमावास ए। अ आदि कुतिथि दिन्न, बहु मूढ लोक ते भास ए ॥१० उत्तरायण होली शिवराति, नव हस्तो नवरात्र कही ए। गणागुरिणी गोत्राड, साचो रवि सोमवार कही ए ॥११ जाग जागरण चन्द्रायण, गुंजन आदि त रोटला ए। ग्रहण सती संक्रान्ति, कुदान पाप पोटला ए ॥१२ पंच ते कुमती भाव, छन्नु पाखण्ड जे कह्या ए।
ते जाणो लोकोक मूढ, जिनशासन बाह्य रह्यां ए ॥१३ अशुभ जे आचार, मिथ्यात्व पूजा पाय ए। जें जिनवाणी थी भिन्न, ते सहु मिथ्या पाप ए ॥१४
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