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पदम-कृत श्रावकाचार गोलख सम ते लेखवे, चिन्तामणि-सम काच । गो-महिषी अर्क थोहर, दुग्ध सम एक वाच ॥५४ अमृत हलाहल विष समा, उद्योतनि अन्धकार । धर्म अधर्म सम लेखवे, भूला जीव गवार ॥५५ मिश्रप्रकृति तणे उदये, न वि जाणे जिय भेद। शुभ अशुभ न वि उ लेखे, घणुं स्यू कीजे निखेद ॥५६ सम्यक्त्व प्रकृति हवे सांभलो, माने देव अरिहन्त। निर्ग्रन्थ गुरु सेवा करिये, धर्म दशलक्षणवंत ॥५७ देव शास्त्र गुरु उ लखे, करे जिनधर्म विचार । तत्त्व पदारथ सरदहे, लहे समकित सार ।!५८ सत्य देवसं प्रीति करे, नाहीं मनमें भ्रान्ति । देव गुरु ये मुझतणा, मुझ विघन करे शान्ति ॥५९ आदि देव अतिशयवन्त, परतो मुझ पूरे । शान्तिनाथ शान्तिकरण, दुःक्रम संकट चूरे ॥६०
समकित विना स्युं धर्म स्युं, भ्रान्ति आणे ते बाल।
जिनशासन बोड़े नहीं, भमे जिम घंटा लाल ॥६१ क्रोध मान माया लोभने, कठिण कसाय जे चार । अनादिकाल अनन्तानुबन्धी, दुःख देई अपार ॥६२
मिथ्यात मिश्र समकितनाम, प्रकृति टालो ए सात । उदय होय जब तेह तणो, तब समकित करे घात ॥६३ ये सातों जब उपशमें, तब होय उपशम भाव ।
स्वस्ति परिणामें जीवनें, शुद्ध सहज परिणाम ॥६४ कचोली कदम नीर सहित, कसमल दीसे तेम । कतकफल माहे तबै, स्वच्छ थाइ जल जेम ॥६५ सर्व घातिस्फर्धकतj, होइ उपशम ज्यारे । समता भाव सात पणे, लाभे दर्शन त्यारे ॥६६ सप्तमध्य छ उपशमें, उदय समकित एक । वेदक रुचि तब ऊपजे, लहे धर्म विवक ॥६७ नदी अ वहे जिम नीरपूर, समल ते जल माहे । समकित पाके वेदक, भ्रान्ति जिन धरम चाहे ॥६८
वेदकतणी उत्कृष्ट स्थिति, जाणो छासठि समुद्र । निश्चल पणे जो रहे सदा, सौख्य आपे जिनधर्म ॥६९ सर्वघाती तणों क्षय होय, प्रकृति टले जब सात । क्षायिक समकित तब ऊपजे, नीपजे गुण वात ॥७० आकाश जिम अभ्र विना, निर्मल दीसे तेज भान । प्रकृति क्षय क्षायिक रुचि, होय गुण-निधान ॥७१ क्षायिकतणी स्थिति उत्तम, जाणों सागर तेतीस ।
अष्ट वरस हीण वे पूर्व कोडि, अधिक भणे जगदीश ।।७२ चौथा गुणस्थान आदे करी, इग्यारमा पर्यन्त । उपशम सम्यग्दर्शन, प्राणी चढे उपशान्त ॥७३
अविरत आदि अप्रमत्त लगें, स्वामी वेदकवन्त । चौथा आदि चौदमा लगे, क्षायिकदृष्टि जयवन्त ॥७४ सम्यग्दृष्टी भवी अण, नरक गति न वि जाये।
शर्करा प्रभृति आदि छ लगें, नारकी न विथा ये ॥७५ भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी, देव देवी ते मांहि । कल्पदेवी अवर स्त्रीवेद, षंढवेद न वि वाहि ॥७६ दुर्योनि न वि उपजिए. हीन दीन दारिद्री। खंज पंग कुब्ज वामणा, न वि थाये विकलेन्द्री ॥७७
पृथ्वी अप तेज वाय तरु, बेइन्द्री तेइन्द्री चौइन्द्री। निगोद म्लेच्छ कुभोगभूमि, पसु असंज्ञी पंचेन्द्री ॥७८
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