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दौलतराम-कृत क्रियाकोप
जैसें ए उपमा कही, तैसें शील समान । व्रत न कोई दूसरो, भा श्री भगवान ॥६७ वक्ता सर्वज्ञ से नहीं, श्रोता गणधर से न । कथन न आतम ज्ञान सो, साधक साधु जिसे न ॥६८ बाधक नहिं रागादि से, तिनहिं तजें जोगिन्द । नहिं साधन समभाव से, धारें धीर मुनिन्द ॥६५ पाप नहीं परद्रोह सो, त्यागें सज्जन संत । पुण्य न पर उपकार सो, घारें नर मतिवंत ।।७० लेण्या शुक्ल समान नहिं, जाम उज्ज्वल भाव । उज्ज्वलता निकषाय सी, और न कोई लखाव ॥७१ दया प्रकाशक जगत में, नहीं जैन सो कोइ । पर्म धर्म नहिं दूसरो, दया सारिखो होइ ॥७२ कारण निज कल्याण को, करुणा तुल्य न जानि । कारण जिन विश्वास को, नहीं सत्य सो मानि ॥७३ सत्यारथ जिन सूत्र सो, और न कोइ प्रबानि । सर्व सिद्धि को मूल है, सत्य हिये में आनि ॥७४ नहिं अचौर्य व्रत सारिखौ, भय हरि भ्रांति निवार । नहिं जिनेन्द्रमत सारिखौ. चोरी बरज उदार ॥७५ नहीं सील सो लोक में, है दूजो अविकार । कारण शुद्ध स्वभाव को, भव-जल तारणहार ॥७६ नहिं जिनशासन सारिखो, शील प्रकाशन हार । या संसार असार में, जा सम और न सार ||७७ नहिं संतोष समान है, सुख को मूल अनूप । नहीं जिनेसर धर्म सो, वर संतोष स्वरूप ||७८ कोमल परिणामानि सो करुणाकरण नाहिं। नहिं कठोर भावानि सों, दयारहित जग मांहि ॥९ नहिं निरलोभ स्वभाव सो, सत्य मूल है कोइ । नहीं लोभ सो लोक में, कारण मिथ्या होइ ॥८० मूल अचीरिज व्रत को, निस्पृहतासो नाहिं । चोरी मूल प्रपंच सो, नहीं लोक के मांहि ॥८१ राजवृद्धि को कारणा, नहीं नीति सो जानि । नाहिं अनीति प्रचार सों, राज विघन परवानि ।।८२ कारण संजम शील को, नहिं विवेक सो भान । नहिं अविवेक विकार सो, मूल कुशील बखान ॥८३ मूल परिग्रह त्याग को, नहिं वैराग समान । परिग्रह संग्रह कारणा, तृष्णा तुल्य न आन ॥८४
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