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२८.
श्रावकाचार-संग्रह करुणा निधि न जिनेन्द्र सो, जगत मित्र है सोय । नहिं क्रोधी सो निरदई, सर्वनाश को होय ।।८५ सतवादी सर्वज्ञ से, नहीं लोक में कोइ।। कामी लोभी से महा, लापर और न होइ ॥८६ सम्यक दृष्टी जीव सो, और न मन मद मोर । मिथ्या दृष्टी जीव सो, और न परधन चोर ॥८७ समताभाव न सत्य सो, सीलवंत नहिं धीर । लंपट परिणामी जिसो, नाहिं कुशीली वीर ।।८८ निसप्रेही निरकुंदसो, परिग्रह त्यागी नाहिं । तृष्णावंत असंतसो, परिग्रह वंत न काहिं ।।८९ दारिद-भंजन, जस-करण, कारण संपति कोइ । नहीं दान सो दूसरो, सुरग मुक्ति दे सोइ ।।९० चउ दाननि से दान नहि, औषध और आहार । अभयदान अर ज्ञान को, दान कहें गण-धार ॥९१ रागादिक परिहार सो, और न त्याग बखान । त्याग समान न सूरता, इह निश्चय परवान ।।९२ तप समान नहिं और है, द्वादश माहि निधान । नहीं ध्यान सो दूसरो, भार्षे श्री भगवान ॥९३ ध्यान नहीं निज ध्यान सो, जो कैवल्य स्वरूप। जा प्रसाद भवरूप मिटि, जीव होय चिद्रूप ।।९४ क्षीण मोह से लोक में, ध्यानी और न जानि । कारण बातम ध्यान को मन निश्चलता मानि ॥९५ कारण मन वशि करण को, नहीं जोग सो और । जोग न निज संजोग सो, है सबको सिर मौर ।।९६ भोग न निज रस भोग सो, जामें नाहिं विजोग । रोग न इन्द्री भोग सो, इह भा भवि लोग ॥९७ शोक न चिन्ता सारिखो, विकलपरूप बिड़रूप । नहिं संशय अज्ञान सो, लखै न चेतनरूप ॥९८ विकलपजाल-परित्याग सो, और नहीं वैराग। . वीतराग से जगत में, और नहीं बड़भाग।।९९ छती संपदा चक्रि की, जो त्यागे मतिवंत । ता सम त्यागी और नहि, भाषे श्री भगवंत ॥१०० चाहे अछती भूमिकों, करै कल्पना मूढ़ । ता सम रागी और नहिं, सो शठ विषयारूढ़ ॥१ नव जोबन में व्याह तजि, बाल ब्रह्म व्रत लेय । ता सम वैरागी नहीं, सो भवपार लहेय ॥२
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