________________
पदम-कृत श्रावकाचार
१११
जे समकित पाले सदा, आनन्दा, शक्ति नहीं तो करो भाव तो। श्रद्धा भावें पुण्य उपजे, आनन्दा, श्रद्धा भवोदधि नाव तो ॥६७
दोहा
अष्टमल गुण जल गालण, निश भोजन परिहार । बार व्रत चेत्य एकादश, तप द्वादश दान चारण दर्शन ज्ञान चारित्र गुण, शुभ समता परिणाम | पन क्रिया मन निर्मली, पालो ते अभिराम ॥२ श्रावकाचार जे आदरे, हृदय थई सावधान । इन्द्र महधिक पद लही, अष्टऋद्धि त्रण ज्ञान ||३ उत्तम नर पदवी लही, राजाधिराज महाराज । मंडलीक महामंडलीक, काम केशव बलराज ॥४ चक्रवत्ति षटखंड धणी, तीर्थंकर पद सार । पंच कल्याण नायक, भोगवी सुख संसार ॥५ दीक्षा लेय तप आचरी, करी कर्म विनाश । केवलज्ञान प्रकट करी पामे ते अविचल वास ॥६
वस्तु छन्द श्रावकाचार तणों श्रावकाचार तणों, में रास कियो मे इणि परें। भविजन मन रंजन, भंजन कर्म कठोर निर्भर । पंच परमेष्ठी मन धरी, सुमरी शारदा गुरु निर्ग्रन्थ मनोहर । अनुदिन जे धर्म पालसी, टाली सर्व अतिचार । जिन सेवक पदमो कहे, ते पामसे भाव पार ॥१
इति श्रावकाचार रास सम्पूर्णम् । ग्रन्थान २७५० श्लोक संख्या । संवत्सर १८५३ कार्तिक सुदि ९ दीतवार भीलोड़ा चैत्यालयस्थाने श्री चन्द्रप्रभ पार्श्वनाथ प्रसादात् । श्रीरस्तु ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org