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________________ १९८ श्रावकाचार संग्रह किरिया लखि ऐसी भाषी तैसी तजिय वैसी वीर। ताते सुख पावे अघ नसि जावे जो मन आवे धीर ।। जिनभाषित कीजै निज रस पीजे कुगति है दीजै नीर । भव भ्रमणहि छांडो सकतिह मांडो उतरौ भवदधि तीर ॥४० अथ प्रहशांति जोतिष वर्णन लिख्यते चौपाई जोतिस चक्रतणी सुनि बात, जम्बूद्वीप माहिं विख्यात । दोय चन्द सूरिज दो कहे, जैनी जिन आगम सरदहे ।।४१ इक रवि भरत उदै जब होय, दूजो ऐरावति में जोय । दुहुनि बिदेह माहिं निसि जाणि, जोतिस चक्र फिरे इहबाणि ॥४२ भरत अरु ऐरावति निसि जब, दुहुन विदेह दुहूं रवि तबै । इक पूरब विदेह रवि जान, अपर विदेह दूसरो मान ।।४३ फिरते रवि शशि को इह भाय, आदि अन्त थिरता नहिं थाय । एक चन्द्रमा को परिवार, आगम भाष्यो पंच प्रकार ॥४४ शशि रवि ग्रह नक्षत्र जाणिये, पंचम सह तारा ठाणिए । तिनकी गिनता इह विधि कही, एक चन्द्रमा इक रवि सही ।।४५ ग्रह अठ्यासी अवर नक्षत्र, भाषै अट्ठाईस विचित्र । छासठ सहसरु नव सय सही, ऊपरि पचहत्तरिकों गही ।।४६ अडिल्ल छन्द पंच अंक इन ऊपर चौदह सुनि हिये, अंक भये उगणीस सकल भेले किये। छासठ सहसरु नव सय पचहत्तर भणे, कोड़ा कोड़ी तारा इतने गण गणे ॥४७ चौपाई एक चन्द्रमा को परिवार, तैसो दूजा को विस्तार । मेरुतणी परदिक्षणा देई, थिरता एक निमिष ना लेई ॥४८ जिन आगममें इह तहकीक, आनमतीकै सो नहि ठीक । जिन मत जोतिष विच्छिति भई, अट्टासी ग्रह भेद न लई ॥४९ दोहा प्रगटयो शिवमत जोर जब, पंडित निजबुधि धार । ग्रन्थ कियो जोतिष तणों, तिम फेल्यो विस्तार ॥५० आदित सोम रु भूमि-सुत, बुध गुरु शुक्र सुजान । राहु केतु शनि ए सकल, नव ग्रह कहे बखान ॥५१ चौथो अष्टम बारहो, अरु घातीक बनाय । साड़े साती शनि कहैं, दान देहु समथाय ॥५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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