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किशनसिंह - कृत क्रियाकोष
चालछन्द
तंदुल रूपो सित वास, रवि शशि को दान प्रकास । तो कपड़ो गोधूम, तांबो गुलद्यौ सुत भूम ॥५३ बुध केतु दुहुँ इकसेही, मूंगादि कख्यों इत देही । गुरुज वसन द्यौ म अरु दालि वनन करि प्रेम ॥५४ जिम कहे शुक्र को दान, तिमही दे मूढ़ अयान । शनि राहु श्याम भणि लोह, तिल तेल उड़द तद्योह ||५५ हस्ती अरु घोटक श्याम, जुत श्याम विलरथ नाम । इत्यादिक दान बखाने, ग्रह शान्ति निमित मन आने ॥ ५६ नवग्रह सुरपद के धारी, तिनके नहि कवल अहारी । किह काज नाज गुल है, सुर किम हि तृपतिता है ॥५७ हाथी घोड़ा असवारी, तिनि निमित देह उर धारी । वन के विमान अतिसार, सुवरण नग जड़ित अपार ॥५८ भूपरि कछु पाय न चाले, किह कारण दानहि झाले । तातें ए दान अनीति, शिवमत भाषै विपरोति ॥५९ बालक जनमें तिय कोई, मूला असलेखा होई । दिन सात बीस परभाणै, वनिता नहि स्नान जु ठानं ॥६० पति पहिरै वसन मलीन, बालक निज स्वाद नवीन । सिर दाढ़ी केस न ल्यावे, स्नानहुँ करिवो नहि भावै ॥ ६१ दिन है सब जाय वितीत, किरिया बहु रचे अनीति । द्विज को निज गेह बुलावे, वह मूला शांति करावे ॥६२ तरु जाति बीस पर सात, तिनके जु मंगावे पात । इतने ही कूवा जानी, तिनको जु मंगावे पानी || ६३ इतने ही छाहि जु केरा, सो फूस करे तस भेरा । अरु सताईस कर टूक, सीधा इतने ही अचूक ॥६४
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दक्षिणा एती जु मंगावे, सामग्री होम अनावे |
करि अगिनि बाल अगियारी, घृत आदिक वस्तु जु सारी ॥ ६५
होमें करि वेद उचारे, इह मूल शांति निरधारे ।
पाछे फिर एम कराई, वह फूस जो देय जलाई ॥६६ बालक पग तेल जु माहीं, परियण को देहि बुलाई । सबहीनें बालक के पाय, कहि ढोल द्योह सिरनाय ॥६७ सब मुख वच एम कहावे, हमते तू बड़ो कहावे । ऐसी विधि शिवमत रीति, जेनी करिहै धरि प्रीति ॥६८ धरम न अर्थं भेद लहाहीं, किम कहिए तिन शठ पाहीं । ते अघ उपजावे भारी, तिनके शुभ नहीं लगारी ॥६९
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