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श्रावकाचार संग्रह
गुरुदेव शासतर प्रीति, धरिहै जे मन धरि प्रीति । तें ऐसी क्रिया न मंडे, अघ-कर लखि तुरतहिं छंडे ॥७० सतबीस नक्षत्र जु सारे, बालक कै सकल मझारे । जाके शुभ पूरव सार, सो भुगते विभव अपार ॥७१ जाके अघ है प्राचीन, सोइ यहै दलिद्री हीन । ए दान महादुख दाई, दुरगति केरे अधिकाई ॥७२ . मिथ्यात महा उपजावे, दर्शन सिव-मूल नसावे । निज हित बांछक जे प्रानी, ए खोटे दान बखानी ।।७३ जिनमारग भाष्यो एह, विधि उदै आय फल देह । तेसो भुगते इह जीव, अधिको ओछो न गहीव ॥७४ जाके निश्चय मन माहीं, विकलप कबहूं न कराहीं । मन मांहि विचारै एह, अपनो लहनो विधि लेह ॥७५
बोहा निमित तास चित पूजसी, अधिका जे द्रव्य लाय । कोटि जनम करतो रहो, ज्यों को त्यों ही थाय ॥७६ ग्रह की शांति निमित जो, विकलप छूटे नाहि । भद्रबाहु कत श्लोक में, कहो जेम करवांहि ॥७७
बडिल्ल नमसकार कीरति न जगत गुरु पद लही, सद गुरु मुखत कथन सुण्यो जो होहि सही। लोक सकल सुख निमित कह्यो शुभ वैन कों, नवग्रह शांतिक वर्णन सुनिये चैनकों ॥७८
नाराचछन्द जिनेंद्र देव पासेव खेचरीय लाय है, निमित्त तासु पूजि जैन अष्ट द्रव्य लाय है। सुनीर गंध तंदुलै प्रसून चारु नेवजं, सुदीप घूप औ फलं अनर्घ सिद्धदं भजे ॥७९
सूरज क्रूर जब वाय, पदमप्रभ पूजे पाय । श्री चंद्रप्रभु पूजा तें, सिद्ध दोष न लागै तातें ॥८० जिन वासुपूज्य पद पूजत, भाजे मंगल दुख धूजत । बुध क्रूर पण जब थाय, बसु जिन पूजे मन लाय ॥८१
बरिल्ल विमल बनन्त सुधर्म शान्ति जिन बानिए, कुन्थु अरह नमि बर्धमान मन आनिए। आठ जिनेसुर चरण सेव मन लाय है, बुद्धतणो जो दोष तुरत नसि जाय है ।।८२
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