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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष तसु हरित तोडि के पान, सांजी जलते छिड़कांन । गदहा को मंत्र जु नांखे, बांधिरु जुडापरि राखे ॥२६ दिन बहुत सरदता जामें, स जीव ऊपजे तामें। तिनकी अदया है भूरि, करुणा परि है नहिं मूरि ॥२७ पिरथी में आगि डराही, तिनिके जिय नास लहाही। धूवां मुखसेती निकसै, तबवाय जीव बहु बिनसे ।।२८ थावर की कौन चलावै, त्रस जीव मरण बहु पावै। दुरगन्ध रहै मुख माहीं, कारे कर है अधिकांहीं ।।२९ उत्तम जन ढिग नहिं आवै, निंदा सब ठाम लहावै । दुरगतिहिं दिखावे बाट, सुरगति को जांणि कपाट ||३० अतिरोग बढावे श्वास, ऐसें नरकी का आस। दोषीक जानि करि तजिए, जिन आज्ञा हिरदय भजिए॥३१ उपवास करै दे दान, किरिया पाले धरि मान। पीवे हैं तमाखू जेह, ताके निरफल दै एह ।।३२ अघ-तरु सिंचन जल-धार, शुभ पादप-हनन कुठार । बहु जनकी झूटि घनेरी, दायक गति नरकहि केरी ॥३३ इह काम न बधजन लायक, ततक्षिण तजिये दुखदायक। के सूंघे केक खेहैं, तेक दूषण को लैहैं ॥३४
दोहा भांग कराँभो खात ही, तुरत होत वै रोस । काम बढ़ावन अघ करन, श्री जिनवर पद सोस ॥३५ अतीचार मदिरा तणों, लागै फेर न सार । जग में अपजस विस्तरे, नरक लहै निरधार ॥३६ लखहु विवेकी दोष इह, तजहु तुरत दुखधाम षट मत में निन्दित महा, हनै अरथ शुभ काम ॥३७
मरहटा छन्द इह जगमाहीं अति विचराही क्रिया मिथ्यात जु केरी। अदया को कारण शुभगति-वारण भव-भटकावन फेरी॥ करिहै अविवेकी है अति टेकी तजिकै नेकी सार । धरि मन चित आनै अघही जाने कौन बखानै पार ॥३८ तामै रमि रहिया ग्रह ग्रह गहिया तिय वच सहिया तेह । मन में उर आने कहैं सु बखानै वचन बखानै जेह ॥ नरपद जिन पायो बृथा गमायो पाप उपायो भूरि । अस मन में रमिहै कुगुरुन नमि है भव-भव भ्रमिहै कूर ॥३९
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