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श्रावकाचार-संग्रह
याको षटरस नाम जु कहें, पुन्यवान कबहु न गहें। मन वच तन इनको जो तजे, मदिरा त्याग वरत सो भजे ॥९९
बोहा जे विशुद्ध मदिरा त्यजन, पालै वरत महन्त । मरजादा ऊपर गये, तुरत त्यागिये सन्त ॥२००
चौपाई होत रसोई थानक जहाँ, खिचड़ी रोटी भोजन तहाँ। चावल और विविध परकार, निपजै श्रावक के घर सार ॥१ जीमण थानक जो परमाण, तहाँ जीमिये परम सुजाण । रांधण के भाजन हैं जेह, चौका बाहिर काढ़ि न तेह ।।२ जो काढे तो माहि न लेह, किरियावन्त सो नाहि सनेह । असन रसोई बाहिर जाय, सो बटबोयी नाम कहाय ॥३ अन्य जाति जो भोटै कोय, जिय भोजन को जीमे सोय । शुद्रनि मेले जीमे जिसो, दोष बखान्यो है वह तिसो ॥४ अन्य जातिके भेले कोई, असन करै निरबुद्धि होई । यातें दूषण लगैं अपार, जिमि परजूठि भखै मतिछार ॥५ निजसुत पिता व म्राता जान, सांचो मित्रादिक जो मान । भेले तितकै जीमण जदा, किरियामती वरणो नहि कदा॥६ तो पर जात तणी कहा बात, क्रिया काण्ड ग्रन्थनि विख्यात । भाजन निज जीमन को जेह, माग्यो परको कबहूँ न देह ।।७ अरु परको वासण में आप, जीमेते अति बाढ़े पाप । ग्रामान्तर जो गमन कराय, वसिहै ग्राम सरायां जाय ॥८ मांगे वासन खावे वाहि, जो सीवो घरहूँ को आहि । खाये दोष लगै अधिकार, मांस बराबर फेर न सार ॥९ गूजर मीणा जाट अहीर, भील, चमार तुरक बहु कीर । इत्यादिक जे हीण कहात, तिन बासन में भोजन खात ॥१० ताके घर को बासण होय, ताते तजो विवेकी लोय । श्रावक कुल अति लह्यो गरिष्ठ, क्रिया बिना जो जानहु भ्रष्ट ॥११ जे बुध क्रिया विष परवीन, अन्य तणो वासण गहि होण । तामें भोजन कबहु न करै, अधिको कष्ट आय जो परै ॥१२ जैन धरम जाके नहिं होय, अन्यमती कहिये नर सोय । निपज्यो असन तास घरमाहि, जीमण योग वसाणो नाहि ॥१३ अरु तिनके घरह को कीयो, खानो जिनमत में वरजीयो । पाणी छाणि न जाणे सोय, सोधण नाज विवेक न होय ॥१४ ईधण देख न वालो जिके, दया रहित नर जाणों तिके । जीव दया षटमत में सार, दया बिना करणो सब छार ॥१५
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