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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष चाकी गाले चून रहाय, चींटी अधिक लगै तसु आय । निसिको पोस्यो नजर न परै, ताके दोष केम कचरै ॥८२ नाजमाहिं ऊपरि तें कोय, प्राणी आय रहे जो होय । सोई नजर न आवे जीव, यातें दूषण लगै अतीव ॥८३ एते निशि पीसण के दोष, जान लेह भवि अध के कोष । ताके निशि पीस्यो नहि भलो, त्यागो ते किरिया जुत चलो।।८४ चूनतणी मरयादा कहूं, जिनमारग में जैसे लहूं। शीतकाल दिन सात बखान, पांच दिवस ग्रीषम ऋतु जान ॥८५ बरसाकाल माहि तिन तीन, ए मरयादा गही प्रवीन । इन उपरान्त जानिये इसो, दोष चलितरस भाष्यो तिसो ॥८६ निसिको नाज भेय जो खाय, अंकूरा तिन में निकसाय । जोव निगोद तणों भण्डार, कन्दमूल सब दोष अपार ॥८७ ताते जिते विवेकी जीव, दोष जाणके तजहु सदीव । श्रावक की है घर जो त्रिया, किरियामाहिं निपुण तसु हिया ॥८८ इंधन सोध रसोई माहिं, लावे तासों असन कराहि । तातें पुण्य लहै उत्कृष्ट, भव भव में सुख सहै गरिष्ट ॥८९
. चौपाई कोई मान बड़ाई काजै, अरु जिह्वा लोलुपता साजे । खांड तणी चासणी कराय, दाख छुहारा माहिं डराय ॥९० नाना भांति अवर भी जान, करइ मुरब्बा नाम बखान । कैरो अगनि ऊपरि चढ़वाय, खाण्ड पातमाहे नखवाय ॥९१ कहै नाम तसु कैरी पाक; करवावै तस अशुभ विपाक । . तिनकी. मरजादा वसु जाम, ब्रत धरकै पीछे नहिं काम ॥९२ जेती ऊष्ण नीरको वार, तेती इन संख्या निरधार। . रहित विवेक मूढ़ता जान, राखे घर में बहु दिन आन ॥९३ मास दुमास छमास न ठीक, वरस अधिक दिन लो तहकीक । काहू में तो पेस करेय, मांगै तिनको मांगा देय ॥९४ जातें लखै बड़ाई आप, तिस समान कछु अवर न पाप। मदिरा दोष लगै सक नाहि, ताते भवि तजिये हित जाहि ॥९५ जो मन में खाने को चाव, खावे जीमत वार कराब । अथवा कीए पाछे ताम, लैनो जोग आठहो जाम ॥९६ साठोंका रसको अवटाहि, राखे नरम चासणी ताहि । घागर मटकी भरके राख, ताको बहुदिन पीछे चाख ॥९७ ताहूँ में मदिरा को दोष, महानन्त जीवनिको कोष। अधिको कहा करो आलाप, अहो रात्रि खोये बहुपाप ॥९८
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