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किशनसिंहकत क्रियाकोष याते जे करुणा प्रतिपाल, असन आन घरि कर तजि चाल । निजव्रत रक्षक है नर जेह, यों जिनवर भाष्यो सन्देह ॥१६
छन्द चाल जे आठ मूल गुण पालै, इतने दोषनि को टाले । दीजे जिम मन्दिर नींव, गहिरी चौढ़ी अति सींव ॥१७ तापर जो काम चढ़ावै, बहु दिन लों डिगणे न पावै। तिम श्रावक व्रत ग्रह केरी, इनि बिनि ही नीच अनेरी ॥१८ दरशन जुत ए पलि आवै, व्रत मन्दिर अडिग रहावे । याते जे भविजन प्राणी, निहचे एह मन में आणी ॥१९ प्रतिमा ग्यारा जो भेद, आगे कहि हों तजि खेद ॥२०
अरिहल छन्द किसनसिंह यह अरज करे भविजन सुनो, पालो वसु गुण मूल निजातम को गुणों। दरशन जुत व्रत त्रिविध शुद्ध मनलाई हो, सुरग सम्पदा भुजि मोक्ष सुख पाय हो ॥२१
अथ रजस्वला स्त्री की क्रिया लिख्यते
चौपाई
अवर कथन इक कहनो जोग, सो सुन लीज्यो जे भविलोग। अबै क्रिया प्रगटी बहु हीण, यातें भाषू लखहु प्रवीन ।।२२ ग्रंथ त्रिवर्णाचार जु माहि, वरणन कीयो है अधिकाहि । मतलब सो तामें इक जान, मैं संक्षेप कहूँ सुखदान ॥२३ रितुवंती वनिता जब थाय, चलण महा विपरीत चलाय । प्रथम दिवस ते ही ग्रह काम, देय बुहारी सिगरे धाम ॥२४ अवर हाथ मांही ले छाज, फटके सोधै वोणे नाज। बालक कपडा पहिरा होय, बाहि खिलावै सगरे लोय ॥२५ आपस में तिय हूजे सबै, न करे शंका भीटत जब । मांजै सब हँडवाई सही, जीमण की थाली हू गही ॥२६ जिह थाली में सिगरे खांहि, ताही में वा असन कराहि । जल पोवे को कलस्यो एक, सब ही पीबै रहित विवेक ॥२७ क्रिया कोष ग्रन्थन में कही, रितुबंती जो भाजन लही। ग्रह चंडार तणा को जिसो, वोहू भाजन जाणो तिसो॥२८ और कहा कहिए अधिकाय, वह वासण माहे जो खाय । ताके दोष तणो नहिं पार, क्रिया हीण बहु जाणि निवार ॥२९ निसिर्को पति सोवत है जहां, वाहू सयन करत है तहां । दुहु आपस में परसत वेह, यामें मति जाणो संदेह ॥३० कोळ विकल महा कुमतिया, दुय तीजे दिन सेवै तिया। महापाप उपजावै जोर, यासम अवर न क्रिया अघोर ॥३१
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