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________________ १२६ श्रावकाचार-संग्रह महाग्लानि उपजे तिहि वार, चमारणि ते अधिकार | जाको फल वे तुरत लहाय, जी कहुं उस दिन गरभ रहाय ॥३२ भाग्य हीण सुत बेटी होय, पर तिय नर सेवे बुधि खोय । क्रोधित है कह अति बच ठीक, जद्वा तद्वा कहै अलीक ॥३३ रितुवंती तिय किरिया जिसी, भाषो भपि सुणि करिए तिसी। वनिता धर्म होत जब बाल, सकल काम तजिके तत्काल ॥३४ ठाम एकांत बैठि है, जाय, भूमि तृणा संथारो कराय। निसि दिन तिह पर थिरता धरै, निद्रा आये सयन जु करै ॥३५ इह विधि निवसे वासर तीन, तब लों एती क्रिया प्रवीन । प्रथम ही असन गरिष्ठ न करै, पातल अथवा कर में धरै ॥३६ माटी बासण जल का साज, फिरि वे हैं आवें नहि काज । इह भोजन जल पीवन रीति, अवर क्रिया सुनिये घर प्रीति ॥३७ छंदचाल दिन में नहिं सयन कराही, हासि न कोतूहल थाहीं । तनि तेल फुलेल न लाबें, काजल नयना न अंजावे ॥३८ नख को नहीं दूर करावे, गीतादिक कबहु न गाबे ॥ तिलक न वे रोली केशर, कर पय नख दे न महावर ॥३९ एक दिवस तीन ली भोग, रितुवंती न करीवो जोग। पुरुषनि कों नजर न धारे, निज पतिहं को न निहारे ॥४० वनिता है धरम जु निसिकों, दिन गिण लीजे नहिं तिसकों। सूरज नजरों जो आवे, वह दिन गिणती में लावे ॥४१ दूजे दिन स्थान कराही, धोबी कपड़ा ले जाही। संकोच थको नखवाई, औरन की नजर न आई ॥४२ तीजे दिन जलसें न्हावे, तनु वसन ऊजले लावे ।। चउथे दिन स्नान करती, मन में आनंद धरती ॥४३ तन बसन ऊजले, धारे, प्रथमहि पति नयन निहारे । निसि धरै गरभ जो बाम, पति सूरन सो अभिराम ||४४ निपजाब उत्तम बालक, बड़भाग जनहिं प्रतिपालक । तातें इह निह जानी, चौथे दिन स्नान जु ठानी ।।४५ पतिवरत त्रिया जो पारे, निज पति को नयन निहारे । नर अवर नजर जो आवे, तस सूरत सम सुत धावे ॥४६ शीलहि कलंक को लावे, अपजस लग पटह बजावे । यातें सुभ बनिता में हैं, किरिया जुत चाले ते हैं ।।४७ निजपति बिन अवर न देखे, सास ने नाहिं मुख पेखे। ताके घर माही जाणो, लछमी को बाल बखाणो ॥४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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