________________
१२७
किशनसिंह-कृत क्रियाकोष अति सुजस होय जगमाहीं, तासम वनिता कहें नाहीं। इह कथन लखो बुध ठीका, भाषों नहिं कछू अलीका ॥४९
दोहा
क्षत्री ब्राह्मण वैश्य की, क्रिया विशेष वखान । ग्रन्थ त्रिवर्णाचार में, देख लेहु मति मान ॥५०
इति रजस्वला स्त्री क्रिया वर्णनम् ।
अथ द्वादश व्रत कथन लिख्यते
दोहा
कियो मूल गुण आठ को, वर्णन बुधि अनुसार ।
अब द्वादश व्रत को कथन, सुनहु भविक ब्रतधार ॥५१ बारा व्रत मांहीं प्रथम, पांच अणुव्रत सार । तीन गुणव्रत चार पुनि, शिक्षाव्रत सुखकार ॥५२
छन्द चाल। इह ब्रत पाले फल ताको, भाषो प्रत्येक सुजाको। जे अव्रत दोष अपारा कहि हो तिन को निरधारा ॥५३ समकित जुत व्रत फल दाई, तिहकी उपमा न कराई। बिनु दरशन जे व्रत धारी, तुष खंडन सम फलकारी ॥५४
. डिल्ल जो नर व्रत को धरै सहित समकित सही, सुर नर और फणिंद्र संपदा को लही। केवल विभव प्रकाश समवशृत लहि सदा, सिद्ध-वधू कुचकुंभ पाय क्रीडत सदा ।।५५
बोहा
भाग्य हीन ज्यों चहत गुण, धन धान्यादिक नाहिं। भीत मूर्ति नित ही दुखी, वरत-रहित नर थांहि ॥५६
गीता छन्व जो शुद्ध समकित धार अति ही नरभव सुखकर कौन है। संसार में जे सार सारहि भोग सो मुनि व्रत गहें ॥ सो मुक्ति वनिता के पयोधर हार सम जे रति करे। तह जनम मरण न लहै कबही सुख अनंता अनुसरें ॥५७
__ दोहा कुबुद्धि भव संसार में, भ्रमत चतुर गति थान । जिन आगम तत्त्वार्थ को, विकल होय सरधान ।।५८
अथ अहिंसा अणुव्रत लिख्यते । चौपाई त्रस की घात कबहुँ नहिं जाण, जो कदाचि छूटै निज प्राण । थावर दोष लगै तिह थकी, प्रथम अणुव्रत जिनवर बकी ॥५९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org