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________________ श्रावकाचार-संग्रह राजा आदि पुरलोक, आव्या, अभव्यसेन आदें मुनि भाव्यां, ब्रह्मा देखी मन रीझिया ए॥६१ रेवती राणी आगल ते कहीयो, ब्रह्मा प्रत्यक्ष पिते रहीयो, प्रेरी घणुं पण गई नहीं ए ॥६२ दूजे दिन पोलितें दक्षिण, महेशरूप कोयो रे विलक्षण, बैल बैठो गौरी साथे ए॥६३ वरुण आदि आव्या पुरि-जन्न, चले नहीं रेवती मन्न, महेश देखी लोक मोहिया ए॥६४ तीजे दिन पुर पश्चिम द्वार, बिष्णु-गोपी सोलसह कुमार, गदा शंख-चक्र धरी ए ॥६५ विष्णु वन्दन बहु लोक ते जाइ, विस्मय पामी आव्यो ते राइ, कृष्ण मायाए लोक रंजीया ए॥६६ मूढलोक अचम्भो ते पाम्यां, घरे रही ते रेवती रामा, भामें पड़ा भोला लोक ए ॥६७ दिन चौथे उत्तर दिस जाण, समोसरण जिन करे बखाण, बार सभा पुरे दोसए ॥६८ लोक सहित भूपे जई वंद्या, अभव्यसेन मुनि आनंद्या, जिन देखी लोक चमकीया ए ॥६९ रेवती रानी चिन्ते तिण वार, जिन चौबीस गया मोक्ष दुवार, ब्रह्मारूप ते को छै नहीं ए ॥७० होइ गया ते रुद्र इग्यार, नव केशव ते गति अनुसार, जिन आगम माहे सांभल्यो ए ॥७१ विद्याधर अथवा कोइ देव, कपट मायाए करावे सेव, देव दानव वैक्रिय करी ए ॥७२ चन्द्रप्रभ माया सहु छांडो, वृद्ध ब्रह्म तणुं रूप मांडी, कांपि काया रोग घणो ए ॥७३ मध्याह्न समय तस आंगण आवी, भूमि पडयो ते मूर्छा आवी, देखी रेवती हाहाकार करे ॥७४ शीतल जल घाली सीस नवाय, सावधानी करी ब्रह्म काय, प्रासुक आहार तेणें दीयो ए ॥७५ आहार लेय वमे ब्रह्मचार, रेवती सुश्रूषा करे तिणी वार, अंग पखालि निशंकपणे ए ॥७६ तब तुल्लक प्रगटरूप लीयो, रेवती गुण प्रशंसा कीयो, धन धन तुभ अमूढगुण एं ॥७७ निज गुरुनी ते धरमवृद्धि दीधी, तुझ नामें मे जात्रा कीधी, गुण स्तवी ब्रह्मचार गयो ए ॥७८ धन धन राणी अंग अमूढ, धन धन महिमा जस प्रौढ; अमूढव्रतें मन चल्यो नहीं ए ॥७९ वरुणराय तस रेवती राणी, जिन पूजे सुणे सद्-गुरुवाणी, राज रिद्धि सुख अनुभवी ए ॥८० बरुणराय पाम्यो वैराग्य, दीक्षा लोधी करी संग त्याग, वसुकीति राजा थापीयो ए ॥८१ रेवती राणी तप जप संजम सुद्धो पाले, मरण समाधि आप संभाले, माहेन्द्र स्वर्गे ते देव हुओ ए॥८२ रेवती राणी संजम तप बलीउ, सम दम, तप बहु तेणे कीयो राग रोष मद परिहरो ए ॥८३ समकित बलें टाले स्त्रीलिंग, ब्रह्म स्वर्गे हुओ देव उत्तुग, महर्धिक संपदा लंकर्यो ए ॥८४ मेरे नंदीश्वर जात्रा जाय, जिनकेवली सदा पूजे पाय, धरम ध्याने सुखे रहे ए ॥८५ अमूढ अंग धरो, अमूढ अंग धरो भवियण इणि पर देव तत्त्व गुरु परखीय मूर्ख पणूं तजि अति निर्भर, रेवती स्त्रीलिंग छेदीने, पंचमे स्वर्ग हुओ देव मनोहर। अवर जीव बहु आदरो अमूढ़ अंग गुण धार, जिन-सेवक पदमो कहे ले पामे भव पार ॥८६ उपगृहन अंग । ढाल हेलिनी उपगृहन पालो अंग, दोष अछादुव्रती तणुं हेलि। कर्म-उदय होय दोष, न कोजे तेह घणुं हेलि ॥१ ढाकी पर अवगुण गुण वालो, पर उजला हेलि। कुणे पाल्यो एह अंग, तेह कथा हवे संभलो हेलि॥२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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