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पदम-मतभावकाचार
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मुनिवर हुवा श्रीनन्दषेण, निविचिकित्सा अंग पाल्यो तेण, दशमें स्वर्गे ते देव हुबो ए॥२६ पछी हुओ वसुदेव सुजाण, तेह कथा हरिवंशे जाण. अवर जोर्वे अंग पालियो ए ॥२७
चोयो बमूढ बंग प्राप्यते एह रहीयो इहां वृत्तान्त, अमूढ अंग कहुँ हवे सन्त, रेवती राणी कथा सुणो ए॥२८ देव आगम गुरु परीक्षा कीजे, सगुण निर्गुण भेद लहीजे, मूर्खपणुं दूरे तजो ए ॥२९ विजया एह दक्षिण श्रेणी. मेघकूट नयर तणों धणी, चन्द्रप्रभ खेचरपती ए॥३० राजरिद्धि सुख भोगवे राय, अढ़ाई द्वीप माहे जात्रा जाय, पूजे जिन केवली पद ए ॥३१ जात्रा करतो आव्यो दक्षिण देश मथुरा एह, शशिनामें सूरी भेटीमा ए ॥३२ धर्मसुणी उपज्यो नैराग, संगतणुं करि परित्याग, चन्द्रशेखर राज थापियो ए ॥३३ जात्रा काजे विद्या एक राखी, क्षुल्लक दीक्षा लीधी गुरु साखी, तप जप संजम आचरे ए॥३४ ब्रह्म कहे सुणों, गुरु तम्हो, उत्तर मथुरा जाई अम्हो, कहोनों कांई कहो छो किसुं ए॥३५ गुरु कहे सुणो वच्छ विचक्षण, सुव्रत मुनि छै शुभ लक्षण, मुझ वन्दना कहियो तस ए॥३६ मथुरातणों स्वामो छै वरुण, तस राणी रेवती शुभ चरण, धर्म वद्धि कहियो तस ए॥३७ ब्रह्म पूछी सद् गुरु त्रण वार, अवर कांई भविक है गुणधार, आज्ञा लेइ ब्रह्म संचों ॥३८ तब मन चिते ब्रह्मचारि, भव्यसेन भणे अंग इग्यारि, तेहर्ने काइ को नहीं ए ॥३९ विस्मय पाम्यो ते मन माहे, तेह तणी हवे परीक्षा चाहे, कवण कारण छै तेह तणुं ए॥४. उत्तरमथुरा वनहिं मझार, सुव्रत मुनि वंद्या भवतार, निज गुरु तणी वंदना कहीइ ए ॥४१ ब्रह्मनें धर्मवृद्धि तेणें दीधी, गुप्त गुरु प्रतिवंदना कीधी, सामाचारी जती तणी ए॥४२ क्षुल्लक तणों वात्सल्य बहु कोयो, विनय सहित सन्मान ते दीयो, माहो माहे क्षेम प्रश्न करी ए ॥४३ भव्यसेन गुनिवर छे जिहां, ब्रह्मचारि आव्यो वली तिहां, नमोस्तु करी ऊभो रह्यो ए॥४४ . वलती धर्मवृद्धि न वि दीधी, साधर्मी भणि भक्ति न वि कोधी, मिथ्या अहंकारे संचर्यो ए ॥४५ विद्या गर्व-भूधर ते चढ़ी उ, अभ्यन्सर अज्ञाने जडीउ, नडीयो मोह कमें घणुए ॥४६ ते मुनि उपज्यो मिथ्या मान, न वि जाणे ते भेदने ज्ञान, ज्ञान विना शुभ गुण नही ए॥४७ प्रभात समय मल-मोचन जाय, विनय सहित ब्रह्म साथें, थाय, जलकुंडी निजकर ग्रही ए॥४८ चन्द्रप्रभ विद्याप्रभाये. एकेन्द्री अंकुर सहावे, हरित कायमय पंथ कियो ए ४९ भव्यसेन अंकुरा वाहे, एकेन्द्री का आगम माहे, मन चिंतवि पण रुचि नहीं ए ॥५० ते अंकुरा ऊपर मुनि चाले, यत्न विना ब्रह्म दुख साले, पाप प्रमादे कपजे ए ॥५१ ब्रह्मचारी प्रपंच जब कीयो, कुण्डी जल सोसी तब लियो, दीनूं कमंडलु गैतो करी ए॥५२ व्यांमि जई कुडो मुनि जोई. जल विना शौच किम होई, मन मूकी पछे बोलीयो ए ॥५३ ब्रह्मचारी कहे भव्यसेन, मृतिका शौच करो तमे तेह, सर दाखी अलगो रह्यो ए ॥५४ सरोवर जाई तेणें लीधो, कृपाभाव मुनि नवि कीघो, विचार थकी ते वेगलो ए ५५ सुध बोध कुज्ञान ते थाइ, सूर्य तेज चूक नवि पाइ, तिम मिथ्या ते जीव दूसियो ॥५६ शुद्ध स्वाद सहजे जिम दूध, कटुकतुबी थाइ असुद्ध, मिथ्या अज्ञान ते वासीयो ए॥५७. अभव्यसेन नामें तस दीयो, लोक मांहे प्रगट गण कीयो, ब्रह्मचारी निजस्थानक गयो ए॥५८ एक दिन पुर पूरव पगार, ब्रह्मा रूप कीया मुख चार कमलासन कंठे सूत्र धर ए॥५९ कोपीन करि कमंडल पात्र, ब्रह्म वेद भणे बहु छात्र, गात्ररूप लोक-रंजक ए॥६०
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