________________
२६
श्रावकाचार-संग्रह सहस्रार बारमें स्वर्ग, महधिक देव ऊपजो ए।
सहज वस्त्र आभरण वैक्रियिक देह ते नीपज्यो ए ॥६२ कल्पवृक्ष विमान, देवी स्यु क्रीडा करि ए ।जिनकेवली पूजे पाय, धर्मरुचि सदा धरि ए ॥६३
दोहा विनोद शील नियम ग्रही, अनन्तमती सती नार ।
स्वगतणा सुख अनुभवी, ते तरसी संसार ॥६४ निःकांक्षित अंग ऊजलो, पाले जे नरनार । स्वर्ग मोक्षसुख ते लहे, अन्त तिरे संसार ॥६५
सती-शिरोमणि सीता कही, द्रौपदो चन्दनबाल।
निःकांक्षित गुण आदरी, पाम्पा सुख गुण माल ॥६६ इम जाणिय दृढ़ मन करी, समकित पाले सार । जिनसेवक पदमो कहे, ते पामे भवपार ।।६७
अथ तृतीय अंग लिख्यते । ढाल भद्रबाहुनी निर्विचिकित्सा पालो अंग, रोग देखी श्रावक यति संध, सूग साधमी परिहरी ए ॥१ निर्विचिकित्सा धर्यो केणे अंग, तेह तणों हवे कह प्रसंग, भूप उद्दायण कथा सुणो ए॥२ भरतक्षेत्र माहे कच्छ देश, रौरवनयर तणों नरेश, उद्दायण भूप तणों ए॥३ । प्रभावती नग्में तस राणी, पूजे श्रीजिन सद्गुरु वाणी, दान पूजा जप तप करी ए ॥४ एक बार सौधर्म स्वर्गनाथ, सभा पूरी बैठो देबसाथ, धर्मतणां गुण वर्णवे ए ।।५. निविचिकित्सा समकित अंग, उद्दायण पाले अभंग, रंग सदा जिनधर्म तणुं ए॥६ इन्द्र प्रशंसा सुणी तब देव, विस्मय पाम्यो वासव देव, परीक्षा जोवाने चालीओ ए ॥७ वृद्ध मुनिवर तणुं रूप लीधो, गलित कोढ़ व्रण अंगते कोधो, देह दुर्गन्ध माखी भमे ए ॥८ थर-थर कांपे मुनिवर-देह, मध्याह्न समय आव्यो राय-गेह, तिष्ठ तिष्ठ करी पड़िगाहिआ ए ॥९ आसन देय पखाले पाय विधि-सद्रित आहार देई राय. प्रभावती भक्ति करैए ॥१० तब मुनि वम्यो आहार, राय-अंग ऊपर अपार, दुर्गन्ध अंग व्यापीयो ए ॥११। हा हा भूप कहे मुनिवृद्ध, अजाणपणे अन्न दीवो विरुद्ध, भूप निन्दा करे आपणो ए ॥१२ वली मुनि वमे बीजी वार, प्रभावती छांटी सविचार, अवर जन सहु दूरे गया ए ।।१३ सूग नवि आणी राजा राणी, निर्मल प्रासुक लेय पाणी, मुनि अंग पखालियो ए ॥१४ तब देवें प्रगट रूप लीयो, राय-राणी स्तवन बहु कीयो, धन्य धन्य इन्द्रे प्रशंसिया ए ॥१५ देवे वस्त्र आभूषण आपो, समकित महिमा महीथल थापी, गुण स्तवी सुर घर गयो ए ।।१६ भूप राणी सुखें करे राज्य, सारै प्रजा तणूं वहु काज, न्याय विधि राज भोगवे ए ॥१७ धरम काज करता दिन जाय. निमित देखी वैराग्य मन ध्याय. निज पत्र राज थापियो ए ॥१८ श्री वर्धमान जिनेश्वर पासें. दीक्षा लेइ ते शास्त्र अभ्यासे, ध्यान अध्ययन तप आचरि ए ॥१९ शुक्लध्याने घाती कर्मचूरी, केवलज्ञान ते वांछित पूरी, धर्म उपदेश देइ निर्मलो ए ॥२० अंग अघाती कर्म क्षय कियो, साम्राज्य सिद्ध पद लियो, उद्दायण मुनि मुकतें गयो ए॥२१ प्रभावती राणो तिणी वार, वैराग लोधो संयम भार, तप जप सूचो आचरि ए ॥२२ निर्मल समकित पाले चंग, तब बलें टाले स्त्री लिंग, मरण समाधि साधीयो ए ॥२३ ब्रह्म स्वर्गे ते उपज्यो देव, महर्धिक वैक्रियिक नीपज्यो, वस्त्राभरण ते लंकर्यो ए॥२४ उद्दायण भूप पाम्या मोक्ष, प्रभावती राणी देव सौख्य, निर्विचिकित्सा अंग करी ए ॥२५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org