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पदम-कृत श्रावकाचार
मास तणों ए देखी दर्शन, मद्य गन्ध दूरे त्यजो ए। सूकातणों ए लहो स्पर्शन, आवतो देखी आहार त्यजो ए.||५ वहती ए रुधिरनी धार, चार अंगुल अंतर कही ए। तजिये ए तब आहार, अवर वीभत्स देखी सही ए॥४६ मांजार ए गंडक जाण, हिंसक पशु जीव-धात ए। सांमली ए वयण चंडाल, पुष्पवती नार-दर्शन ए ४७ एह आदि ए जे देश रुढ, शास्त्र दूषण ते टालिये ए। मानें नहीं जे मन प्रौढ़, तेह अन्तराय पालिये ए ४८ निरदोष ए आहार लेइ तेह, पात्र पखालि यत्नकरी ए। आवीये ए की जिनगेह, देव गुरु विनय धरी ए ॥४९ आवीये ए सह गुरु पास, आहार-आलोचन कीजिये ए। धरीये ए अंग उल्लास, अशन प्रत्याख्यान लीजिये ए॥५० रुचि नहीं ए जो विधि एह, तो गुरु गोहन विधि करो ए। गुरु साथे ए श्रावक गेह-प्रासुक आहार ते अनुसरो ए ५१ इणि परि ए पेहलो भेद, अंते उद्दिष्ट पालीइए। सावद्य ए कीजे निरवद्य, मन वच काया संभालीइ ए ॥५२ उत्तम ए बोजो प्रकार, तेह भेद हवे सुणो ए। भामरि ए लेई आहार, उदंड पणे गुण घणो ए॥५३ परिग्रह ए कोपीन मात्र, कोमल पीछी करधरि ए। भोजन ए करे करपात्र, एक वार ते पर धरि ए ॥५४ बेत्रण ए गये निज, मास, निज मस्तकें लोच करे ए। वैराग्य ए ज्ञान अभ्यास, निजवीर्ष प्रगट धरे ए ॥५५ संथारो ए भूमि पवित्र, अथवा पाटि पाषाण तणी ए। वैरागी ए विविध विचित्र. दया क्षमा काजे भणी ए॥५६ कोमल ए तुलिका गादि, सुख सेज्या सुर नर परिहरो ए। इन्द्री ए करे उन्माद, तजो मदन विकार कारी ए॥५७ अखंड ए आवश्यक धार, अनूप्रेक्षा चिन्तन करोए। धर्मध्यान ए कीजे भवतार, आर्त रौद्र ने परिहरो ए॥५८ मन वच काया जाणि, कृत कारित अनुमोदन ए। उद्दिष्ट ए आहार दोष खाणि, नव मेदे ते तमें त्यजो ए॥५९ छ काय ए जीव संधार, उद्दिष्ट पणे हिंसा उपजे ए। तो किम ए ते लीजे आहार, बहु पाप जेणे संपजे ए॥६० षट् मास ए करें उपवास, जो उद्दिष्ट आहार लीजिये ए। तो तेह ए तप विनास, वृथा श्रम गुण दीइ ए॥६१ आषा कर्मी ए लेइ आहार, तो जति ते होइ नहीं ए। केवल ए वेष आधार, भोजन का ते सही ए॥६२
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