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श्रावकाचार-संग्रह
उद्दिष्ट ए अभक्ष ज जाणि, जिह्वा स्वादे जे ग्रही ए। तेह थी ए डसुं विष, एक भव दुख ज लहे ए ॥६३ उद्दिष्ट थी ए बहुविध पाप, वहु जन्म ते दुख दीये ए। पशु गति ए पामें संताप, कष्ट बहु पर तें लहे ए ॥६४ आधा कमि ए लेइ जे आहार, ते मूढा आप वंचिये ए। परनी ए वाए गमार, पाप तणों भार संचिये ए॥६५ जप तप ए करे जे ध्यान, सम दम संयम आचरे ए। ते सहु ए थाइ अज्ञान, जो उद्दिष्ट अनुसरे ए ॥६६ उद्दिष्ट ए अनासमो पाप, हुओ, हुइ छ, होसे नहीं ए। ते यती ए सहेय संताप, व्रत भंग दूषण लहे ए॥६७ जे मूढ ए जिह्वा स्वाद, आधा करमी आहार लीये ए। ते प्राणी ए विषय प्रमाद, निज व्रत ने अंजलि दीइ ए॥६८ जिणें आहार ए जाइ चारित्र, निन्दा अपजस बहु विस्तरे ए। ते अन्न ए छांडो मित्र, भव दुख किम निस्तरो ए॥६९ गृही तणुं ए लेइ आहार, चार विकथा जे करे ए। भोजन ए राजा चोर, नार, फोके पाप पिंड भरे ए ॥७० छोड़िये ए सह परमाद, पंच इन्द्री मन संवरी ए। तजिये ए हरष विषाद, समता भाव सदा धरो ए ॥७१ भणिये ए निर्मल ज्ञान, जप तप संजम आचरिये ए। कीजिये ए धर्म सु ध्यान, आर्त रौद्र सहु परिहरो ए ॥७२ अहो रात्रि ए गमीये काल, धर्म ध्यान सदा रहीये ए। आवश्यक ए विशाल, निज निज काले ते ग्रहीये ए॥७३ कीजिये ए त्रण प्रतिक्रम, रात्र गोचरि दिवस तणों ए। त्रिकाल ए सामायिक परम योगभक्ति बे हि भणो ए ७४ लीजिये ए स्वाध्याय चार, स्तवन वन्दना सदा करो ए। उत्तम ए कायोत्सर्ग धार, निज शक्ति ते अनुसरो ए॥७५ अनुप्रेक्षा ए चिन्तविये बार, भावना सोल भावो भली ए। दश लक्षण ए धर्म विचार, अट्ठावीस गुण वली ए ॥७६ संथारो ए चार हस्त मात्र, जोइ पूजी जत्न करी ए। उपनो ए जे खेद गात्र, ते उपशान्ति निद्रा धरो ए ॥७७ मध्य रात्रि ए समये तुं जाण, एक मुहूर्त निद्रा कही ए। बहु निद्रा ए करता हाणि, सावधान थई गुण ग्रही ए ॥७८ काल तणी ए कला निज एक, धर्म विना फोकट गमो ए। इम जाणी ए धरिय विवेक, धरम ध्यान सदा रमो ए ।।७९ दुर्लभ ए मानुष जन्म, श्रावकाचार अति दुर्लभ ए। जु लाधो ए तो साधो परम, निःप्रमाद करो सुलभ ए ॥८०
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