________________
९४
Jain Education International
श्रावकाचार-संग्रह
शौच तणों ए राखे पात्र, काष्ठ नालीयर लोह तणों ए । परिग्रह ए पुस्तक मात्र, ज्ञान अभ्यास कीजे घणो एं ॥ २७ पर दीघू ए कोपीन वस्त्र, अखंड अंग तिणें आचरि ए । प्रतिलेखणि ए लेई पवित्र, कोमल भाव हिये धरी ए ॥ २८ चौद घडी ए चड़यां पछी दीस पात्र पखाली करंधरी ए । कीजिये ए नगर प्रवेश, भिक्षा काजे ते संचरे ए ॥२९ सोधतो ए ईर्यापन्थ, चार हस्त निरीक्षण करे ए । जेहवो ए चाले निर्ग्रन्थ, सन्नि सेरीए नीसरे ए ॥ ३०
कहि साथ ए करे नहीं बात, वाटें ऊभो रहे नहीं ए । बोले नहीं ए निज पर क्षात, कपट माया ते नवि कहीइ ए ॥ ३१ धनवंत ए देखी धनक्षीण, ऊंचा घर देखी करी ए ।
लोह हेम ए देखी रत्न, त्रण समता भावे करो ए ॥ ३२ श्रावक तणां ए देखी घर हार प्रथम घरे जड़ रहीये ए । भए अंगण द्वार, नमोकार नव गणों ए ॥३३ दातार ए देखे जब, प्रासुक जल जो लेइ करे ए । कर्मवशे ए नवि देखे जेम, तब तु अवर घर जइ ए ॥ ३४ उदर ए पूरण काज, पांच सात घरे फिरी ए ।
न वि कीजिए मान कुलाज, प्रासुक आहार ते लीजिये ए ॥ ३५ एक बे ए वासी अन्न, रात्रितणुं राध्युं परिहरो ए ।
स्वाद हीन ए माने नहीं मन्न, सदोष अन्न ते जाणिये ए ॥ ३६
तजिये ए सबल आहार, रागद्वेष जेणें होइ ए ।
पामे ए मदन विकार, विरुद्ध वस्तु व्रत खोइ ए ||३७
श्रावक ए. रही एक स्थान, हस्त पाप पखालिये ए । लीजिये ए. प्रासु नीर, ध्यान निज नियम संभालिये ए ॥ ३८ ये तब भोजन, ममता स्वाद ते परिहरो ए । कीजिये ए एक आसन्न, पछे मुख शोधन करो ए ॥३९ पालिये ए सप्त मौन धीर, तेह नाम हवे सांभलो ए । छोड़िये ए संज्ञा शरीर, हुंकारादिक वेगलो ए ॥ ४० भोजन ए वमन स्नान, मैथुन मल-मोचन तथा ए । पूजतां ए श्रीजिन भान, सामायिक मौन यथा ए ॥४१ मौनव्रते ए हुए बहुपुण्य, ज्ञान तणो विनय होइ ए । अज्ञानें- ए होइ अंदीन, मान लाज ते गुण लही ए ॥ ४२ जे मूढ ए पाले नहीं मौन, ज्ञानावरणी कर्म वांघिए । मूक होइ गुण शून्य, दुख दुर्गति ते साधि ए ॥ ४३ अन्तराय ए पालिये सात, रुधिर चर्म अस्थि देखिये ए । जीवतों ए देखी घात, वस्तु नियम भंग पेखिये ए ॥४४
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org