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पदम -कृत श्रावकाचार
रही ए श्री जिनगेह, गुरु सेवा सदा कीजिये ए ।
निज पुत्र ए बन्धव गेह, प्रासुक आहार ते लीजिये ए ॥९ सरस विरस ए मिले जो आहार, हरष विषाद ते परिहरो ए । छांडिये ए ममता असार, अनुमोदना रखे करो ए ॥ १० इष्ट अनिष्ट ए मिष्ट कडुबु ं अन्न, राग द्वेष न वि आणीये ए । शुद्ध वस्तु ए ल्यो मानि मित्र, शुभ-अशुभ न वखाणीये ए ॥११ निज मनिए धारिय सन्तोष, आहार लेइ•मुख शुद्धि करो ए । उदर ए पूरी निर्दोष, जिल्ह्वा स्वाद ते परिहरो ए ॥१२ मस्तक ए रोम शिखा मात्र, शिर विटणी अल्प धरो ए । पे हरि ए उज्ज्वल वस्त्र अंग आच्छादो वस्त्रें करी ए ॥१३
रहिये ए श्री जिनगेह, अंग पाय पवित्र करी ए । बंदि ए देव गुरु तेह, भक्ति वात्सल्य विनय घरी ए ॥१४ भणिये ए श्री जिनवाणि, कान सहित ते सांभली ए ।
for धर्म सुध्यान, मान मोह थी वेग लो ए ॥१५ ए इणि परि ए गमा निज काल साधर्मी सुं चरचा करो ए । गुणवन्त ए गुण विशाल, निज मुखे ते उच्चरो ए ॥१६ दान पूजा ए तप गुणधार, पुण्य काज सदा कीजिये ए । पालिये ए शुभ आचार, धर्म अनुमोदना कीजिये ए ॥१७ जिणि जिणि ए उपजे पाप, ते ते काज न कीजिये ए ।
मूकीये ए ममता ताप, पाप अनुमति न दीजिये ए ॥१८ चिन्तवीये ए मनहब्भार, घर मोह पास थही ए । छोड़िये ए जिम बेडी ए चोर गमार, चिन्ते पास किम मोडिये ए ॥१९
करीये आवश्ये ए काल सुलब्ध, जिनदीक्षा कहीये लोजिसी ए ।
साधु के ए भिक्षा शुद्धि, कही ए पर घर कीजिसे ए ॥२० इणि परि ए दशमी चैत्य, संक्षेपे में वर्णवी ए ।
इग्यारसी ए चेत्य सुणो मित्र तेह मेद हवे कहूं ए ॥२१ बंदीइ ए देव गुरु पाय, सजन सहु खमावीइ ए । निर्मल ए वैराग्य ध्याय, मैत्री भाव घरे बहु ए ॥२२ भव अंग ए भोग वैराग, निज मनमें चिन्तन करो ए ।
दशविध ए करि संग त्याग, लीजे संजम क्षुल्लक तनों ए ॥ २३ इग्यारसी ए प्रतिमा स्थान, प्रथम भेद ते सांभलो ए ।
कोपीन ए तणों परिधान, अखण्ड वस्त्र एक निर्मलो ए ॥ २४ निज शिर ए तणां जे रोम, कतर वा मुंडण करे ए । अथवा ए लोंच उत्तम, वैराग्य दया हेतु धरे ए ॥ २५ अल्प वित्त ए राखे जात्र, निन्दा शोक न उपजे ए । निर्भय ए होइ निज गात्र, शील सन्तोष ते उपजे ए ॥२६
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